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चलें, मन-के-पार १५० ज्ञान होता है । अन्तराय का अर्थ होता है बाधा । अन्तराय तो पर्दा है । चेतना-जगत् के इर्द-गिर्द पता नहीं कितनी परतें/पर्दे हैं । हर अन्तराय चित्त का विक्षेप है । विक्षिप्त मनुष्य अन्तर्यात्रा में दिलचस्पी नहीं ले पाता । व्याधि, अकर्मण्यता, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति/आसक्ति, भ्रान्ति, लक्ष्य की अप्राप्ति और अस्थिरता- ये प्रमुख अन्तराय और चित्त-विक्षेप हैं । 'ॐ' में वह शक्ति एवं क्षमता है कि वह हर बाधा को कमजोर करता है, उसे जीवन-पथ से हटने को मजबूर करता है
शरीर का रुग्ण रहना स्वाभाविक है, किन्तु निरोग होना चमत्कार है। 'ॐ' मनोवैज्ञानिक ध्वन्यात्मक चिकित्सा है । 'ॐ' को यदि हम प्रखरता के साथ आत्मसात् होने दें तो जैसे शरीर से पसीना बाहर निकल आता है वैसे ही रोग भी शरीर से दूर हट जाते हैं । शरीर को संयमित रखना और संयमित आहार ग्रहण करना 'ॐ' की व्याधि-मुक्ति प्रकिया को और बल देना है। 'ॐ' में थिर होने वाला स्वास्थ्य लाभ और अप्रमत्तता तो क्या आत्म-स्थिरता/स्थितप्रज्ञता को उपलब्ध कर लेता है । 'ॐ' तो अनमोल शब्द है । हीरों के दाम होते हैं, 'ॐ' हर मोल से ऊपर है।
सबद बराबर धन नहीं, जो कोई जाने बोल । हीरा तो दामों मिले, सबदहिं मोल न तोल ॥ - कबीर
'ओम्' तो परा-ध्वनि है, भाषा-जगत का सूक्ष्म विज्ञान है । 'ॐ' को ही अपनी ध्वनि बनने दो और उसी की प्रतिध्वनि स्वयं पर बरसने दो । 'ओम्' की प्रतिध्वनि जब स्वयं हम पर ही लौट कर आयेगी, तो उसकी प्रभावकता केवल कानों से ही नहीं, रोम-रोम से हमारे भीतर प्रवेश करेगी । हर रोम कान बन जाएगा और एक ग्राहक की तरह ग्रहण करेगा । कान ग्राहक है । आँख का काम घूरना है, जबकि कान का वरण करना । श्रवण का उपयोग करने वाला श्रावक है और महावीर की मनीषा में 'श्रावक' होना जीवन के राष्ट्र-द्वार पर पहली आध्यात्मिक क्रान्ति है।
'ओम्' से बढ़कर श्रवण क्या होगा ! बड़ा मधुर है 'ॐ' | रस है, माधुरी से सराबोर । 'ॐ' का विज्ञान भी मधुर है, किन्तु 'ॐ' का अर्थ नहीं निकाला जा सकता । अर्थ तो शब्दों के होते हैं । 'ॐ' को प्रतीक बनाया जा सकता
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