________________
सार्वभौम है ॐ
१४७
1
आवाज है तो 'स्वस्तिक' उसकी अस्मिता । 'स्वस्तिक' कर्म-योग का परिचायक है । एक दृष्टि से तो स्वस्तिक कर्म-योग के प्रतीक माने जाने वाले सुदर्शन चक्र से भी उत्तम है । 'चक्र' संहार कर सकता है, किन्तु स्वस्तिक का काम निर्माण करना ही है । 'स्वस्तिक' में चार दिशाएं हैं, यानी स्वस्तिक का काम हुआ हर दिशा में व्यक्ति को आगे बढ़ने देने की प्रेरणा देना । स्वस्तिक महा प्रतीक है भारतीयता का, कर्मठता का, जागरूकता का । उसके पास तिरस्कार नहीं छोटे लोगों के प्रति, मात्र करुणा है । वह उनका संहार नहीं करता, वरन् उनका सुधार करता है । जो अच्छे हैं, वे आगे बढ़ें और जो बुरे हैं, वे सुधरें । मगर वे भी आगे बढ़ें; जो अच्छाई के मार्ग पर सक्रिय हैं । इसलिए 'स्वस्तिक' जीवन-जागरण और कर्मयोग का महान् सन्देश - वाहक है ।
‘स्वस्तिक' के अलग-अलग कोणों से जुड़ी रेखाएं अलग-अलग धर्मों का भी प्रतिनिधित्व करती हैं । मार्ग / रेखाएं चाहे जिस दिशा से आयें, किन्तु हर रेखा केन्द्र तक पहुँचती हैं । 'ॐ' 'स्वस्तिक' का केन्द्र है । चाहे जिस मार्ग से चलो या जिस पंथ का अनुगमन करो, चाहे स्वयं के बल पर चलो और चाहे किसी के सहारे । सब की गन्तव्य - पूर्ण यात्रा ब्रह्म स्वरूप ओम् पर केन्द्रित है और वहाँ तक जाना और ले जाना ही अध्यात्म का उद्देश्य है ।
'ॐ' को हम मात्र शब्द न कह कर जीवन की सम्पूर्ण अभिव्यंजना ही कहेंगे । 'ॐ' को हमने शब्द माना, इसीलिए 'अ' 'उ' 'म' के रूप में 'ओम्' के अलग-अलग विभाग खोले । 'ॐ' तो जीवन की अन्तर्प्रतिष्ठा है । शब्द को जीवन से अलग किया जा सकता है, लेकिन जीवन को जीवन से अलग नहीं किया जा सकता । ‘ॐ’ तो गूंगे में भी प्रतिष्ठित है और बहरे में भी । 'ॐ’ तो पंचम स्वर है । इसकी करुणा के द्वार खुलने पर गूंगा गूंगा नहीं रह जाता । बहरा बहरा नहीं रह पाता । उसका हृदय ही अभिव्यक्त हो उठता है । हृदय बोलता है 'ॐ' । होठों से 'ॐ' बोलना तो अभिव्यक्ति की एकाग्रता और मानसिक ऊहापोह पर चोट है। 'ॐ' का प्रबल दावेदार तो वह जिसका हृदय खुल गया है । हृदय से उमड़ने वाला 'ॐ' तो अमृत का निर्झर है । आनन्द से भिगो देता है वह, निहाल हो जाता है उसका रोम-रोम ।
'एक ओंकार सतनाम ' - परम सत्य का नाम तो एक ही है । चैतन्य और आनन्द सच्चिदानन्द के सत्य से ही जुड़े हुए हैं । सत् का सीधा सम्बन्ध
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org