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सार्वभौम है ॐ
'ॐ' की ध्वनि-संहिता अत्यन्त सूक्ष्म है। यह अखण्ड शब्द है । इसके खण्ड और विभाग करने के प्रयास तो किए गये हैं; किन्तु इससे 'ॐ' की अखण्डता को कोई चोट नहीं पहुँचती है । हाँ, यदि 'ॐ' को खण्डित न किया जाता, तो शायद विश्व के सारे धर्मों का एक ही मत्र और एक ही प्रतीक होता- 'ॐ' ।
ॐ' के मुख्यतः तीन खण्ड किये गये हैं, 'अ', 'उ', 'म'- यानी 'ए', 'यू', 'एम' । संस्कृत से निष्पन्न सभी भाषाओं का प्रथम स्वर 'अ' है । 'अ' आश्चर्य का द्योतक है । जब कोई व्यक्ति बोलते-बोलते अटक जाता है, तो उसके मुँह से अटकाहट के रूप में 'अ'-ही निकलता है | आनन्द के क्षणों में भी कण्ठ-यन्त्र से 'अ' ही निष्पन्न होता है । 'अ' तो आदि ध्वनि है । 'अ' से पूर्व कोई भी वर्ण होठों से निकल नहीं सकता । यदि किसी वर्ण से 'अ' का लोप कर दिया जाये, तो वह वर्ण से सीधा व्यंजन बन जाएगा । सम्पूर्ण भाषा-तन्त्र की बैसाखी 'अ' ही है । इसलिए 'ॐ' का प्रथम स्वर 'अ' को मानना भाषा के सम्पूर्ण रचना-तन्त्र को 'ॐ' से अनुस्यूत स्वीकार करना है ।
कहते हैं जब पाणिनी ने शिव का डमरू-नाद सुना, तो उसके नाद में पाणिनी को चौदह सूत्र सुनायी दिये | सारे सूत्रों का शिरोमणि 'अ' बना । 'अ' के हटते ही शब्द की पूर्णता को लंगड़ी खानी पड़ती है । 'अ' की आदिम पराकाष्ठा को स्वीकार करने के कारण ही श्रमण-परम्परा ने अपने धर्म-चक्र-प्रवर्तकों को तीर्थंकर कहने के बजाय अर्हत् और अरिहन्त कहना ज्यादा उचित माना । वे तीर्थंकर की वन्दन-विरुदावली गाते हैं, तब प्रारम्भ ‘णमो अरिहंताणं' से करते हैं । यदि वे ‘णमो तित्थयराणं' कहें तो कह सकते हैं, परन्तु वे 'ॐ' से हटना नहीं चाहते। क्योंकि 'ॐ' का 'अ'
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