________________
६५
जलती रहे मशाल
और ह्रास के ज्वारभाटे उभरते रहते हैं । व्यक्ति प्रतिक्षण बिगड़ता और बनता है । हर क्षण वह मरता है और जीता है । व्यक्ति के विनाश होने के बाद भी व्यक्तित्व का विनाश नहीं होता । व्यक्ति तो पानी का बुलबुला है, पर व्यक्तित्व सागर की लहरों की तरह अनन्तता-अथाहता को अपने आँचल में समेटे रहता है ।
व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए बहुत कुछ आहुति देनी पड़ती है । व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य मनुष्य के लिए अतिशय टेढ़ी खीर है । प्रकृति ने तो मनुष्य को छोड़कर दूसरे प्राणियों को जैसा-जिसको चाहा, वैसा व्यक्तित्व दे दिया । शेर को हिंसक बना दिया, गाय को शाकाहारी बना दिया । मगर मनुष्य को कुछ नहीं बनाया । उसने उसी पर छोड़ दिया कि जैसा तुम्हें बनना पसन्द हो, स्वयं को वैसा ही बना लो ।
एक चूहे के बच्चे को नदी की धारा में डाल दीजिए या कुत्ते को तालाब में फेंक दीजिए, तो वह अपने आप तैरकर बाहर निकल आयेगा । उसे किसी ने तैरना नहीं सिखाया । पर मनुष्य के बच्चे की बात तो छोड़ दीजिए, नौजवान को भी यदि तैरना न सिखाया जाये, तो वह नदी की धार में गिरने से डूबेगा ही, उबरेगा नहीं । जो लोग तैराक नहीं हैं, उन्हें पानी देखते ही डर लगेगा । कोई पानी में धक्का भी दे दे तो उसे नानी याद आ जाती है ।
मुझे याद है कि एक नौजवान पलंग पर लेटे-लेटे हाथ-पैर मार रहा था । जब किसी ने पूछा कि भैया ! यह क्या कर रहे हो ? तो उसने बताया यार ! तैराकी सीख रहा हूँ । पूछनेवाले ने फिर पूछा कि यही बात है तो नदी किनारे क्यों नहीं चले जाते ? घर में बिस्तर पर हाथ-पैर चलाकर तैराकी सीखोगे ? क्या आप जानते हैं कि उसने क्या उत्तर दिया । उसने कहा कि नहीं, मैं नदी किनारे जाने से डरता हूँ । कहीं डूब गया तो !
सच पूछिये तो उसका यह उत्तर मनुष्य की प्रकृति को ही उजागर करता है । प्रकृति ने मनुष्य को बुद्धि देकर उसके सारे गुण-धर्म छीन लिये हैं । उसे अपनी बुद्धि से ही अच्छाई और बुराई की कसावट करनी होगी । प्रकृति बस संकेत मात्र देती है, इशारे करती है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org