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चलें, मन-के-पार ११८ पुद्गल के अद्वैत को, पुरुष और प्रकृति के एकत्व को, जड़ और चेतन के रागात्मक साहचर्य को । तुम सिद्धों जैसे हो, सिद्धों के वंशज हो, स्वयं पर गर्व करो ।
हमारी तो सिर्फ आत्मा है, शेष सब पराये हैं । आत्मा का अर्थ ही होता है अपना । आत्मा के अतिरिक्त जितने भी सम्बन्ध और सम्पर्क सूत्र हैं, हमारे लिए तो वे सब-के-सब विजातीय हैं । विजातियों के साथ रहोगे ? बैठोगे ? जियोगे ? विजातियों से विराग ही भला । मेरा तो सिर्फ मैं हूँ, मेरे सिवा मेरा कोई नहीं । आखिर मौत के वक्त कौन किसका होता है। क्या दादा के लिए हो पाये ? क्या पड़ौसी के साथ जा पाये ? भले ही तुम सती होने का दम्भ भर लो, पर आत्महत्या करके भी तुम असत् से सत् न हो पाये ।
मृत्यु तो कसौटी है इस तथ्य को परखने की कि कौन अपना है, कौन पराया । सुख को बाँटकर भोगा जाता है, मगर दुःख भोगने के लिए तो मनुष्य अकेला है, निपट अकेला | मौत-की-डोली अकेले के लिए ही आती है, पर जिसने इस विज्ञान को आत्मसात् कर लिया कि मेरे अतिरिक्त मेरा कोई और नहीं है, वह अमृत-पुरुष है । उसके लिए मौत अपनी मरजी से नहीं आती । विशुद्ध आत्मज्ञानी को इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त हुआ रहता है । वह तभी मरता है, जब वह मरना चाहता है ।
यदि भेद-विज्ञान की ज्योति को अपने मन-मन्दिर में जगाना चाहते हो, तो यह स्वीकार करो कि मेरा तो सिर्फ मैं हूँ। मेरे अलावा मेरा और कोई नहीं है । यह चैतन्य-बोध का आधार-सूत्र है । यह मेरापन न राग है, न ममत्व । यह मेरापन 'मैं' का परम सौभाग्य है । यह तो चैतन्य-दशा में प्रवेश है । मैं मेरे अलावा किसी को भी मेरा मानूंगा, तो यह मेरा संसार का भाव-सफर होगा । बस, चैतन्य ही मेरा है, यह बोध ही तो जीवन में संन्यास का पदार्पण है ।
___संन्यास जीवन की एक प्रौढ़ क्रान्ति है । संन्यास जीवन में सही रूप में तो तभी घटित होता है, जब संसार पूरी तरह असार लगता है । यदि कोई अपनी पत्नी को छोड़कर मुनित्व भी अंगीकार कर ले और उसे पली की याद
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