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चैतन्य-बोध : संसार से पुनर्वापसी
१२१ नन्द बुद्ध के विहार-क्षेत्र में रहा, उनके साथ रहा, पर उसे शान्ति न मिली । वह विलाप करने लगा- जो अपनी रोती हुई पत्नी को छोड़कर भी तप कर सकता है, वह कठोर है । मैं तो, एक ओर पत्नी का राग और दूसरी ओर बुद्ध की लज्जा- दो पाटों के बीच में पिसा जा रहा हूँ | चलते समय मेरी पत्नी ने आँखों में आँसू भरकर कहा था- आलेपन सूखने से पहले वापस चले आना । मैं पत्नी के उस भावविह्वल वचनों को आज भी नहीं भूल पाया ।
नन्द ने भिक्षु को देखकर कहा- ये जो चट्टान पर आसन जमाये हुए भिक्षु ध्यान में बैठे हैं, क्या इनके मन में काम नहीं है ? काम तो नैसर्गिक है । जब देवता और ऋषि-मुनि भी काम के बाण से घायल हुए हैं, फिर मैं तो सामान्य इंसान हूँ । मैं घर लौट जाऊँगा । जिसका मन चंचल है, वह सिद्ध कैसे बन सकता है ? उसमें ज्योति कहाँ !
यद्यपि नन्द ने आखिर भेद-विज्ञान आत्मसात् कर लिया था, सिद्धार्थ की भी इसमें भूमिका रही होगी, किन्तु जीवन का मध्याह्न वह जिस ढंग से घुट-घुट कर जिया, उसे न तो प्रव्रज्या कहा जा सकता है और न संन्यास । संन्यास के बाद बोध-रूपान्तरण का क्रम नहीं है, वरन संन्यास हो बोध-पूर्वक । आँखों की शर्म से किसी को संन्यासी बने रहने के लिए मजबूर रखना बोधपूर्वक पहल नहीं कही जा सकती ।
लोग तो जाके समुन्दर को जला आये हैं मैं जिसे फूंक कर आया, वो मेरा घर निकला ।
कोई कुछ भी करे, पर तुम अपने कदम तभी बढ़ाना जब संन्यास हृदय की धड़कन बन जाये, जीना भी संन्यास बन जाये । संन्यास कोई स्वयं को कष्ट देना नहीं है । संन्यास तो स्वयं का बोध पाना है । आत्म-बोध से बढ़कर कोई भी तप नहीं है । बोध ही काफी है भेद-विज्ञान का । जड़ तो जड़ बना रहेगा, चेतन चेतन में समा गया- यही उसकी पुनर्वापसी है और यही उसका प्रतिक्रमण ।
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