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चैतन्य-बोध : संसार से पुनर्वापसी
99 आये, तो संसार उसके संन्यास की परछाई बनकर उसके साथ आया कहलायेगा ।
संन्यास देने-दिलाने की प्रथा इतनी आम हो गई है कि आत्म-ज्ञान का तो कहीं कोई पता ही नहीं है और साधु-संन्यासियों के टोले दर-दर दिखाई देते हैं । जिस दुकान पर एक भिखारी भीख माँग रहा है, वहीं तुम साधु-संन्यासियों को हाथ फैलाते देखोगे । बुद्ध ने जिस अर्थ में 'भिक्षु' शब्द का प्रयोग किया, लोगों ने उसका हुलिया ही बदल डाला है ।
दो दिन पूर्व स्वीट्जरलैण्ड से आये एक जोड़े ने मुझे भारत-यात्रा का अनुभव बताया । उन्होंने कहा कि हम सद्गुरु की तलाश में भारत आए । अध्यात्म के प्रति प्यास जगी । हम सबसे पहले वाराणसी पहुँचे । जिस होटल में हम ठहरे, वहां हमने साधु को जिस ढंग से मांगते पाया, हम तुलना न कर पाये साधु और भिखारी के बीच । तब हमने जाना कि भारत में गुरु की तलाश कितनी कठिन है, जो सही अर्थों में सद्गुरु हो, जीवन को अध्यात्म से प्रत्यक्ष जोड़ सके ।
साधुता जीवन की महान सम्पदा है । उसे रोटी के दो टुकड़ों के लिए कलंकित न किया जाना चाहिये । पेट के लिए साधु मत बनो । पेट के लिए श्रम किया जाना चाहिए । मांगने से लजाना भला ।
जब सांसारिकता के भौरे की कोई भी भिनभिनाहट कानों को न सुनाई दे, तब ही संन्यास-के-द्वार पर कदम रखना बेहतर है । मैं नहीं चाहता कि हम न घर के रहें, न घाट के । संसार में रहकर हम संसारी कहलाएँगे, लेकिन संन्यास में यदि संसार की पदचाप सुनने में रस लेंगे और उसके बाद भी संन्यासी बने रहेंगे, तो न तो हम पूरी तरह संसारी हो पाये और न ही संन्यासी ।
__संन्यास तो चैतन्य-क्रान्ति है । यह कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के उपदेश से मरघटी वैराग्य जग गया और व्यक्ति झोली-डंडा लेकर निकल पड़े । न रोटी के लोभ से लिया गया संन्यास 'संन्यास' है और न ही किसी की आँखों की शर्म से । संन्यास तो बोध-की-क्रान्ति है, आध्यात्मिक होने का प्रयास है, चैतन्य को आह्वान है, अपने-आप में होना है और अपने अतिरिक्त जो भी है, जितने भी हैं, उसे खोना है ।
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