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चरैवेति-चरेवेति
१३३ है, ताकि जीवन में 'कभी पतझड़ और कभी बसन्त' की बजाय सदाबहार ऋतु बनी रहे ।
ध्यान आग है, खोपड़ी में भरे कचरे को राख करने के लिए | मनुष्य मूर्छित इसलिये बना रहता है, क्योंकि उसे लगता है कि उसकी तृष्णा उन लोगों से परितृप्त हो रही है, जिनको उसने अपना मान रखा है । वह मूर्छित सिर्फ उन लोगों के प्रति ही नहीं है । वह उन बिन्दुओं पर भी मूर्छित है, जो कभी हो चुके; उनके प्रति भी जो कभी होंगे । जो 'था' में जीता है, जो 'नहीं है' में जिएगा, वह रीता ही मरेगा । अतीत 'था', भविष्य 'होगा' । जो हो चुका, वह अभी नहीं है; और जो होगा, वह भी अभी नहीं है और लोग पिस रहे हैं, बीते-अनबीते के दो पाटों-के-बीच में ।
अतीत की स्मृति सताये जा रही है, तो भविष्य की वासना/कल्पना आकुल-व्याकुल कर रही है । मनुष्य अपने ही हाथों से अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रहा है । अतीत भी सपना है और भविष्य भी सपना है । एक वह सपना है, जिसे कभी देखा और दूसरा वह सपना है, जो अभी तक आया नहीं है । जो इन दोनों स्थितियों से आँख हटा लेता है, वह त्रेता-पुरुष है । यह जागरण है । जागरण का आध्यात्मिक नाम संन्यास है, मुनित्व का आयोजन है । पर मनुष्य है ऐसा, जो नकली स्वर्ण-मृग के पीछे जीवन की सच्चाई को खो रहा है । मृग सूर्य-किरण को जल का स्रोत समझकर दौड़े तो बात समझ में आती है । मृग बेचारा अबोध प्राणी है, किन्तु मृग से भी ज्यादा अबोध तो दोपाया मनुष्य है, जो उसे स्वर्ण-मृग मानकर उसके पीछे अपना तीर-कमान लेकर निकला है । जो है ही नहीं, उसके पीछे क्या लगना ! जो है, उसके लिए अपने पुरुषार्थ का उपयोग करो । जो है, वह 'है' में है, स्वयं में है । कस्तूरी कुण्डल बसै- स्वयं के ही नाभि-केन्द्र में समायी हुई है वह कस्तूरी, जिसके चलते सौरभ तुम्हें निमंत्रण दे रही है 1 मनुष्य है ऐसा, जो अपने व्यक्तित्व का उपयोग 'अभी' के लिए नहीं कर रहा है । वह अपनी इच्छा-शक्ति को बचाये रखना चाहता है- कभी और के लिए, किसी और के लिए, कहीं और के लिए ।
एक सर्द मौसम और आगे आने वाला है, आग अपने सीने में कुछ दबी भी रहने दो ।
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