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चरैवेति-चरैवेति
१३७ भोजन किये बगैर लौटना भी राजा को न जचा ।
अन्त में राजा का धीरज टूट गया । वह उसके रसोईघर में गया, क्योंकि खाना पकाने में इतनी देर तो लग ही नहीं सकती थी । राजा देखता क्या है कि चूल्हे पर बड़ा भारी पतीला रखा है और उसमें चावल भरा है, मगर चूल्हे में आग का एक अंगारा भी नहीं । सम्राट बोला, मूर्ख ! यह तू क्या कर रहा है ? यों यह चावल कैसे पकेगा ? सन्त ने कहा- उसी दीये की आग से हम चावल पका रहे हैं, जिसके ताप से हम उस रात बच गये थे, महल के दीये से ।
कहीं यही दुर्दशा तो हमारी नहीं है कि साधक और साध्य में इतनी दूरी बनी हुई है, जितनी पतीले और महल के दीये में है, तबेला तो चढ़ा रखा है मन का, इतना बड़ा, और आग का कहीं कोई पता ही नहीं है । यदि है भी तो एक-दो अंगारे | आग प्रभावी हो, पूरी हो ।
जैसे सारी सरिताएँ सागर में जाकर समा जाती हैं; वैसे ही जब सारी इच्छाएँ उस परम तत्त्व की खोज में, उपासना में समर्पित होंगी, तो समाधि और परमात्मा के द्वार उसी वक्त खुल जाएँगे । ऊर्जा की, आग की सघनता से ही पानी उबलेगा, भाप की तरह ऊर्ध्वगमन करेगा ।
जो चलता है, अनवरत चलता है, वही गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा पूरी करता है । फिर 'बूंद' नहीं रहती । वह सागर हो जाती है । ज्योति परम ज्योति में शाश्वत समाधिस्थ हो जाती है । चेतना के हर चरण पूरे हो जाते हैं । वह चैतन्य-पुरुष हो जाता है । चलने वाला कृत है, सत् है, स्वर्ण है और पार पहुँचाने वाला अमृत है, अमर है, प्रकाश-से-सराबोर है ।
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