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चरैवेति-चरैवेति
१३५ उसके माता-पिता ने एक योजना बनायी और बच्चे को घोंसले से धक्का दे मारा । पेड़ की टहनी से वह जमीन पर गिरे, उससे पहले ही पता नहीं कैसे, उसके पंख स्वतः ही खुल गये । जमीन तक पहुँचा भी, लेकिन एक पल जमीन पर ठहरे बिना, पंखों को फड़फड़ाता हुआ वापस अपने घोंसले में पहुँच गया । बच्चा काँप रहा था, पर दंपति प्रसन्न थी । उन्होंने उसे अपनी गोद में उठा लिया और प्यार से अपने आँचल में समेट लिया ।
यदि मन की मानते रहोगे, तो घोंसले से आगे न बढ़ पाओगे । मन को बुझाओ/समझाओ । जीवन का अन्तर्मार्ग अज्ञात है, किन्तु अज्ञेय नहीं । ज्ञात से अज्ञात में उड़ान भरने में डर जरूर लगेगा, पर जिसने सीख लिया- 'चरैवेति-चरैवेति' का कर्मयोग-सूत्र, वह अपने प्रयास को प्रमाद की सीढ़ियों पर नहीं बैठने देगा ।
सीढ़ी पर बैठना तो ठहरना है । जीवन ठहरना नहीं है, बल्कि चलते रहना है । ठहरना तो जीवन्तता पर चूना पोतना है । जीवन तो श्रम है । इसलिए श्रम में अपनी समग्रता लगाओ । विश्राम जीवन की भाषा नहीं है । विश्राम तो मृत्यु का नाम है । चलना ही तो धर्म है । जो रुक गया, वह धार्मिक नहीं, अपितु अधार्मिक है । कर्म करना हमारा कर्तव्य है, अधिकार है । फल की चिन्ता मत करो, क्योंकि सही कर्म का फल कभी गलत नहीं हो सकता ।
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः'- यह उद्घोष श्रीकृष्ण का है । आनन्दघन ने कृष्ण की परिभाषा दी है- 'कर से कर्म कान्ह कहिये' जो कर्म करता है, वह कृष्ण है ।
कर्मयोग ही जीवन के सर्वोदय की प्राथमिक भूमिका है ।
महावीर अपने शिष्यों से यही तो बात कहते हैं कि तुम चलो । 'उट्ठिए णो पमायए' उठो, प्रमाद मत करो । उत्थित होने के बाद प्रमाद करना अपौरुष है, दब्बूपन है । इसलिए उठो, जागो; सतत जाग्रत रहो । प्रमाद तुम्हारा धर्म नहीं है । दो कदम आगे रखो ।
फजा नीली-नीली हवा में सुरूर । ठहरते नहीं आशियां में तयूर ||
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