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संबोधि का कारण
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गहरे बोध में उतरना है । शून्य अवतरित होगा और जीवन के अन्तर - झरोखों से समाधान की किरण फूटेगी, जिसके प्रकाश में जानेंगे 'मैं' को, अपने-आपको, अस्तित्व-की- अस्मिता को ।
जो मैं को जानने में लगा है, वह पर का वियोगी है । अपने आपको छोड़कर शेष सारे उसके लिए पराये हो जाते हैं । गुरु, ग्रन्थ, मूर्ति और धर्म भी । यहां तक कि अपनी देह उसे अपने से अलग महसूस होने लग जाती है। जीवन के धरातल पर कोई अनुकूल हो या प्रतिकूल, साधक शोक-रहित और ज्योतिर्मय प्रवृत्तियों में ही रुचि लेता है । उसके जीवन-द्वार पर दस्तक सभी तरह की होती है, मगर अपने अन्तर- गृह में वह उन्हीं को प्रविष्ट होने देता है, जिनसे उसकी निर्लिप्तता और ज्योतिर्मयता को खतरा न पहुँचे, वरन् और सहयोग / बढ़ावा मिले । पंतजलि कहते हैं- 'विशोका वा ज्योतिष्मती'- मन को स्थित करने के लिए यह भी एक राजमार्ग है कि व्यक्ति शोक-रहित और प्रकाशमय प्रवृत्तियों में लगा रहे और उन्हीं का अनुभव करे । यह अनुभूति मन को स्थिर और निर्मल करेगी । मैं कौन हूँ- यह जिज्ञासा प्रकाशमय प्रवृत्ति की प्राथमिक पहल है ।
मूल बात तो यही है कि अपने आप में डूबो । यह सोचो कि जीवन का मूल स्रोत क्या है ? इसी से सम्यक् दृष्टि पैदा होगी । सम्यक् दर्शन पैदा करने का और कोई उपाय नहीं है । इक साधे सब सधे ।
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