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संबोधि का कारण
१२३ जीवन तो छोटी-छोटी घटनाओं से ही परवान चढ़ता है । जीवन की प्रयोगशाला में होने वाले आविष्कार; पाए जाने वाले अनुभव ही तो जिन्दगी के पाठ हैं, उपलब्धि हैं । उपलब्धि तो तभी बन पाती है, जब हम जीवन में पाए जाने वाले अनुभव बटोरें । उन्हें गूंथें, उनकी माला बनाएँ । अनुभव तो हर आदमी बटोरता है, किन्तु अनुभव पाने के बाद भी उस आदमी के अनुभव बिखरे ही रहते हैं, जो उनकी माला नहीं बना पाता । ऐसे आदमी से उसके जीवन का निचोड़ पूछो, तो वह एकाएक उत्तर नहीं दे पाएगा । आदमी की उम्र चाहे पच्चीस हो या पचास । यहाँ उम्र का तो महत्त्व ही नहीं है । अनुभव का निचोड़ क्या है ? इसका जवाब देने में बहुत समय लग जायेगा उसे । अनुभव तो सभी बटोरते हैं । बुद्धिमान तो वह है जो अनुभवों को किसी सूत्र में पिरोए ।
अनुभव फूलों की तरह होते हैं । बगीचे में आप गए । विभिन्न तरह के फूल हैं । इन फूलों को एकत्र कर लिया तो माला बन गई । जिन्दगी के बगीचे में भी हजारों तरह के फूल खिलते हैं । इन्हें एकत्र नहीं करोगे, तो पड़े-पड़े सूख जाएँगे । अनुभवों का सम्पादन और समीकरण वास्तव में बिखरे फूलों का हार बनाना है ।
आदमी के अनुभव 'सम्बोधि का कारण' इसलिये नहीं बन पाते, क्योंकि आदमी एक दिशा में उन अनुभवों को जगा नहीं पाता । किसी एक धागे में उन्हें पिरोया नहीं । इसलिये वे अनुभव खाली ही रहे । उनका उपयोग नहीं हो पाया ।।
आदमी तीन तरह के होते हैं । पहले तो वे जो अनुभव तो करते हैं, मगर न तो उन अनुभवों से कुछ सीखते हैं और न ही अनुभव बटोरते हैं । ऐसे लोग अनुभव पाने के बाद भी कोरे ही रह जाते हैं । बुद्धि तो सबके पास होती है, मगर विरले ही होते हैं, जो उसका उपयोग करते हैं । व्यक्ति एक तो वह है जो बुद्धिमान है । दूसरा वह- जिसके पास बुद्धि तो है, मगर वह उसका उपयोग नहीं करता ।।
मैं रोजाना सुबह देखता हूँ 'चौक' (जोधपुर) में, एक आदमी रोज सुबह दो घण्टे तक भाषण देता है । वह प्रोफेसर और पण्डित से भी
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