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चैतन्य-बोध : संसार से पुनर्वापसी होने की प्रतीति ही 'विराम-प्रत्यय है । इस भूमिका में चित्त का संस्कार बिल्कुल सामान्य रहता है, ना-के-बराबर । जब इस प्रतीति का अभ्यास-क्रम भी बन्द हो जाता है, तब चित्त दर्पण-सा साफ-स्वच्छ हो जाता है । तब वृत्तियों का सर्वथा अभाव हो जाता है ।
यह मुक्त-दशा है । सम्भव है, इस दशा में आत्मा शरीर में रहे, पर वह रहना सिर्फ सांयोगिक है । जीवन में कुछ कर्ज ऐसे होते हैं, जिसका नाता शरीर के साथ होता है । जब कर्ज चुक जाते हैं, तो वह पदार्थ और परमाणु के हर दबाव से मुक्त हो जाती है । यह कैवल्य-दशा है । पंतजलि ने इसे ही निर्बीज-समाधि कहा है । एक जीवन-मुक्ति है
और एक विदेह-मुक्ति । महावीर के अनुसार सम्बुद्ध-पुरुष का कैवल्य-दशा में प्रवास करना ‘संयोगी केवली' अवस्था है । आत्म-तत्त्व/पुरुष के शरीर को भी केंचुली की तरह छोड़ देना उसकी 'अयोगी केवली' अवस्था है । जैन लोग जिसे 'णमो सिद्धाणं' कहते हैं, इसी समय साकार होती है वह वन्दनीय सिद्धावस्था ।
सिद्धत्व की इस शिखर-यात्रा की तराई भेद-विज्ञान ही है । जहाँ आत्मा और पुद्गल का अन्तर आत्मसात् होता है, वहीं जीवन में आत्मज्ञान की पहली किरण फूटती है । यही तो वह चरण है, जिसे विशुद्ध सम्यक् दर्शन और सम्यक्त्व कहा जाता है । संन्यास-की-क्रान्ति इसी बोध-प्रक्रिया से अपना मौलिक सम्बन्ध रखती है । जब तक आत्मज्ञान घटित नहीं होता, तब तक किये जाने वाले हर विधि-विधान राख की ढेरी पर किया जाने वाला विलेपन है । आनन्दघन अभिव्यक्ति को क्रान्तिकारी मोड़ देते हुए कहते हैं- 'आतमज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे' ।
और मैं नहीं चाहता कि हम सिर्फ चोगे बदल लें और भीतर से, जैसे थे वैसे ही बने रहें । ठाण को बदलने से जिदंगी नहीं बदला करती, मगर जहाँ जिन्दगी में ही चैतन्य-क्रान्ति घट जाती है, वहाँ ठाणों का कोई मूल्य नहीं रह जाता ।
भेद-विज्ञान आग है । अगर सचमुच कुछ होना/कर-गुजरना चाहते हो, तो इस आग को अपने हाथों में थामो और जला डालो आत्मा और
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