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वृत्ति : बोध और निरोध
१०६ और छः चक्रों को हम षट् शरीर भी कह सकते हैं । आभाचक्र (ऑरो) की उज्ज्वलता और कलुषता इसी लेश्या-शुद्धि पर निर्भर है ।
वृत्ति उज्ज्वल भी क्यों न हो, आखिर है तो वृत्ति ही । जिसे चिन्तकों ने निवृत्ति कहा है, वह कोई सामान्य वृत्ति से परे होना नहीं है । निवृत्ति सही अर्थों में तभी जीवन की क्रान्तिकारी चेतना बन पाती है, जब व्यक्ति अमल-धवल, शुक्ल-वृत्ति से भी चार कदम आगे बढ़ जाता है । आत्म-बोध और आत्म-सर्वज्ञता वृत्ति-से-मुक्त होने पर ही पल्लवित होते हैं ।
कुछ वृत्तियाँ शुभ होती हैं और कुछ अशुभ । अशुभ से शुभ भली है, किन्तु शुद्धता तो अशुभ और शुभ दोनों के पार है । पांवों की जंजीरें लोहे की हों, बरदास्त के बाहर है। सोने की जंजीरें सुहायेंगी जरूर, किन्तु बांधकर तो वे भी रखेंगी । सोने और लोहे का भेद तो मात्र मूल्यांकन का दृष्टिभेद है । आकाश में उड़ान तो तभी हो पाएगी, जब पंछी पिंजरे के सींखचों से मुक्त होगा ।
वृत्तियां क्लिष्ट भी हो सकती हैं और अक्लिष्ट भी । अक्लिष्ट वृत्तियों की रोशनी क्लिष्ट वृत्तियों के अंधकार को जीवन के जंग-मैदान से खदेड़ने के लिए है । दूर करें अक्लेश से क्लेश को, शुभ से अशुभ को, सत् से असत् को । मृत्योर्मा अमृतं गमय- हे प्रभो ! ले चलो हमें मर्त्य से अमर्त्य की ओर, अमृत की ओर ।
हम अपनी वृत्तियों का बोध प्रत्यक्ष प्रमाणों से भी कर सकते हैं, अनुमानों से भी कर सकते हैं और सद्गुरु के अमृत वचनों से भी । राग क्लिष्ट है और वैराग्य अक्लिष्ट; किन्तु वीतरागता राग व विराग दोनों का अतिक्रमण है । संसार में स्वयं की संलग्नता व गतिविधियों के कारण हम मानसिक तनाव को प्रत्यक्षतः झेलते हैं, किन्तु समाधि को दुःख से अतीत होने का आधार मान सकते हैं । यदि व्यक्ति अज्ञान में दिशाएँ भूल चुका है तो सद्गुरु ही उसके जीवन का सही मार्ग-दर्शन कर सकता है । जहाँ सद्गुरु-का-बाण किसी व्यक्ति के हृदय को बींधता है तो भीतर की सारी रोम-राजि पुलकित हो जाती है । रोशनी की बौछारें बरसने लगती हैं । जीवन का चोला चन्दन के केशरिया फुहारों से भीग जाता है ।
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