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चलें, मन-के-पार गूंगा हुआ बावरा, बहरा हुआ कान । - पांवा तैं पंगुल भया, सद्गुरु मार्या बाण ॥
सद्गुरु तो बाण लिये खड़ा है । उसका तो प्रयास यही है कि उसका ज्ञान का बाण किसी के हृदय को बींधे । वह बाण छोड़ता तो कइयों पर है, पर बिंधते तो सौ में दो ही हैं । तुम बाण को देखते ही या तो स्वयं को पत्थर-हृदय बना लेते हो या दुबककर लक्ष्य से स्वयं को खिसका लेते हो । उल्लू अपनी आंखों को खुला भी रखना चाहता है और स्वयं को रोशनी में भी ले जाना चाहता है । यदि बिदक जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । महाज्योति को आत्मसात् भी करना चाहते हो और वहां जाते हुए कटे अंग की तरह भय के मारे काँप भी रहे हो ।
_ 'मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ।' सद्गुरु तो समाधान की बात कह रहा है और तुम उसे उलझन समझ रहे हो । 'मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे ।' सद्गुरु तो आत्म-जागृति के गीत सुना रहा है और तुम हो ऐसे जो गीत को लोरी मान रहे हो । खाट के पलने में लला की तरह बेसुध सो रहे हो । जरा जागो, मित्र ! जरा संभलो । जब तक स्वयं कुछ न हो जाओ, तब तक वही होने दो जो सद्गुरु चाहता है ।
__ वृत्ति का एक और स्थूल रूप है, जिसे विपर्यय कहा जाता है । विपर्यय अज्ञान है । जो जैसा है, उसके बिल्कुल विपरीत मान लेना विपर्यय है । जैसे सीप में चांदी का अहसास होता है । साँप रस्सी की भाँति दिखाई देता है । यह मिथ्या ज्ञान है, अविद्या है, माया है । रस्सी को सर्प मानोगे तो यह अज्ञान उतना खतरनाक नहीं होगा, जितना सांप को रस्सी मानकर पकड़ लेना । विपर्यय कलष्ट वृत्ति है । यदि प्रत्यक्ष प्रमाण के आसार उपलब्ध हो जायें तो बोधि के द्वार उद्घाटित हो सकते हैं ।
चित्त की एक सबसे भंयकर और खतरे से घिरी वृत्ति है विकल्प । विकल्प शब्द-का-अनुयायी होता है । वास्तव में जिसका विषय ही नहीं है वही विकल्प है । शब्द के आधार पर पदार्थ की कल्पना करने वाली जो चित्त-वृत्ति है, वह विकल्प वृत्ति है । विकल्प ही स्वप्न बनते हैं। जिनका न कोई तीर है,
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