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वृत्ति : बोध और निरोध
१११ न तुक्का; कोई ओर है, न छोर, उसे दिमाग में चलते रहने देते हो तो मनुष्य के लिए अशांति और बैचेनी भरा कोलाहल है ।
आदमी सिर्फ रात में ही सपने नहीं देखता, दिन में भी स्वप्न-भरी पहाड़ी पगडंडियों पर विचरता है । दिन में स्वप्न विकल्प बन जाते हैं और रात में वही विकल्प स्वप्न के पंख पहन लेते हैं । स्वप्न तो दिन में भी ले रहे हो, पर आँखें रोजमर्रा की जिन्दगी में इस तरह लगी हैं कि वे स्वप्न नहीं देख पातीं । वे स्वप्न दबे-हुए स्वप्न हैं । रात को जब खाट पर आराम से सोते हो तब वे फुरसत के क्षणों में स्वप्न की साकारता ले लेते हैं ।
यही कारण है कि वृत्तियों में प्रमुख वृत्ति विकल्प ही मानी जाती है । जो निर्विकल्प हो गया वह सिर्फ विकल्पों से ही मुक्त नहीं हुआ, अपितु वृत्ति-यात्रा से ही शून्य हो गाया; क्योंकि आखिर चाहे प्रमाण-वृत्ति हो या विपर्यय सब विकल्प ही हैं ।
विपर्यय-वृत्ति में विद्यमान वस्तु के स्वरूप का विपरीत ज्ञान होता है और विकल्प-वृत्ति में वस्तु का तो कहीं कोई अता-पता ही नहीं होता । सिर्फ शाब्दिक कल्पना के ताने-बाने गूंथे जाते हैं । कैसा मधुर व्यंग्य है कि नग्नता के लिए भी चर्खे पर रूई काती जा रही है । विकल्प केवल संसार के ही नहीं होते, संन्यास के भी होते हैं ।
कई बार लोग मुझे कहते हैं कि हमें ध्यान में आज अमुक तीर्थ या तीर्थ-की-मूर्ति के दर्शन हुए । यह ध्यान की प्राथमिक उपलब्धि है, पर
आखिरी उपलब्धि नहीं । यह अक्लिष्ट विकल्प की अभिव्यक्ति है । ध्यान में कोई भगवान या देवी-देवता की मूर्ति दिखाई देती हो तो यह वही देख रहे हो, जिसे पहले देख चुके हो । ध्यान में यदि कुछ प्रगट होता है तो वह मूर्ति के रूप में नहीं, अपितु भगवत्ता के रूप में आत्मसात् होता है । ध्यान की मंजिल के करीब पहुँचते-पहुँचते तो साधक गुरु, ग्रंथ और मूर्तितीनों के पार चला जाता है । जब चेतना स्वयं ही परमात्म-स्वरूप बन रही हो, तो वह मन्दिर-मस्जिद की आँख-मिचौली नहीं खेलेगा । उस देहरी पर जो होगा, वास्तविक होगा । जैसा होगा, जीवन्त होगा । फिर हवा
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