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जलती रहे मशाल
१०१ पर उन्हें मंजिल के प्रति शक रहता है । इसलिए वे वापस तीसरी सीढ़ी से नीचे लौट जाते हैं ।
जबकि अपने व्यक्तित्व को सही मायने में व्यक्तित्व का रूप तभी दिया जा सकता है जब व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की उज्ज्वलता के प्रति लग्नशील होगा । व्यक्तित्व के विकास की भूमिका पर आरोहण करने के लिए यह चौथा दर्जा है । ऐसे लोग कुछ करते-धरते दिखाई नहीं देते । वे मात्र अपने अन्तर-व्यक्तित्व के पत्थर को ठोकते-पीटते रहते हैं । उसे ईश्वरीय मूर्ति बनाने की आशाओं को संजोए रहते हैं ।
पर मात्र लगनशील होने से भी कुछ नहीं होगा । उसे कर्तव्यशील भी बनना पड़ेगा । व्यक्तित्व-विकास की पाँचवीं सीढ़ी पर पैर रखते ही व्यक्ति कर्मयोगी बन जाता है । कर्तव्यशील और कर्मयोगी हो जाने से उसे पूर्व की कक्षाएँ कीचड़ सनी लगती हैं । वह जान जाता है कि जब मैं पूर्व कक्षाओं में था तो खारा जल पीता था । अब मुझे मीठा जल मिल रहा है तो खारे जल का सेवन करना बेवकूफी नहीं तो और क्या है ? व्यक्तित्व की इस पाँचवी कक्षा में पढ़नेवाला स्वयं को तो संस्कृत बनाने में लगा ही रहता है, । दूसरों को आगे बढ़ाने और सच्चाई को कायम करने में भी वह अपना शक्तियों को समायोजित कर लेता है । उसके कदम उड़ान भरने लगते हैं महकते बदरी-वन की ओर ।
आगे उसकी यात्रा तो होती है, पर यात्रा करते-करते परिश्रान्त भी तो हो जाता है । मंजिलें अपनी जगह होती हैं, रास्ते अपनी जगह रहते हैं, अगर कदम ही साथ न देंगे तो मुसाफिर बेचारा क्या क्या करेगा ? इसलिए विश्राम के लिए इस छठे मील के पत्थर के पास एक विश्राम-गृह है, आरामगृह है । यहाँ रुककर आदमी थोड़ा दम भरता है । चैन की साँस लेता है, पर यहाँ रहकर आदमी पूरी तरह रुकता नहीं है । वह आगे की यात्रा के लिए सामग्री सँजोता-समेटता है । विश्राम-गृह तो मात्र रात बिताने का आरामगाह है ।
सातवीं कक्षा यानी सूर्योदय । प्रभातकालीन सात बजे के टंकारे । अब व्यक्ति स्वयं को पुनः तन्दुरुस्त समझता है । अप्रमत्त वेग से उसके
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