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चित्त का मिलाप है । उसके पार भी है आधार है, जहाँ से जीवन के सारे घटकों को है ।
चलें, मन-के-पार
। चैतन्य - गंगोत्री ही तो वह ऊर्जा की ताजा धार मिलती
धर्म का अर्थ किसी के सामने केवल मत्था टेकना नहीं है, वरन् जीवन की धारा को बँटने बिखरने से रोकना है । धर्म योग है । और पंतजलि की भाषा में निरोध योग की पहल है । 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः' । मैं धर्म की परिभाषा सिर्फ निरोध तक ही नहीं जोडूंगा क्योंकि धर्म योग है और योग निरोध से भी बेहतर है । योग हमें जोड़ता है, एक धारा से, जीवन की धारा से । योग न केवल चित्त की वृत्तियों से हमें निवृत्त करता है वरन् चैतन्य - जगत् की ओर प्रवृत्त भी करता है ।
चैतन्य - प्रेम ही तो अहिंसा की अस्मिता है । चैतन्य का आह्वान हो सकता है । चैतन्य से प्रेम हो सकता है । प्रेम तो हमेशा अच्छा ही होता है । खतरा तो तब पैदा होता है जब प्रेम सिर्फ शरीर-का- शरीर-के-साथ होता है । यह चैतन्य - प्रेम नहीं है । यह तो भोग-प्रेम है और हर भोग-प्रेम जीवन पर मन एवं वृत्तियों का प्रभुत्व है ।
चैतन्य-जगत् से प्यार करने वाले के लिए न करुणा है, न वात्सल्य । उसके लिए तो सिर्फ प्रेम और मैत्री ही है । करुणा हम तब करेंगे जब अपने से ज्यादा किसी को करुणाशील मानेंगे । वात्सल्य की बारिश हमारे द्वारा तब होगी जब दूसरों को स्वयं से छोटा मानेंगे । क्या कभी सोचा कि महावीर जैसे बुद्ध पुरुष भी अपने शिष्यों को नमस्कार करते थे ? महावीर की ‘णमो तित्थस्स' शब्दावली की मूल अस्मिता यही है । नमस्कार छोटे कद, बड़े कद, छोटी उम्र, बड़ी उम्र से जुड़ा नहीं होता । नमस्कार का सम्बन्ध तो चैतन्य- अस्मिता से है । जीवित को नमस्कार किया जाता है और मृत को दफनाया जाता है । जिसे हम क्षुद्र समझते हैं, चैतन्य-पुरुष की दृष्टि में उनमें भी वे ही विराट सम्भावनाएं हैं, जो स्वयं उसमें गुलाब के फूल की पंखुड़ियों की तरह खिली हैं । उन सम्भावनाओं को मेरे भी प्रणाम हैं ।
और मैं यह कहना चाहूँगा कि वे विराट सम्भावनाएँ हम सब से
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