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चलें, मन-के-पार समा सकता । उन अधोगामी व्यक्तियों का एक-एक कदम विनाश का स्वतन्त्र कोश है, एनसाइक्लोपीडिया है ।
व्यक्ति तो हम सभी हैं । हमारा सबका अपना-अपना व्यक्तित्व है । हमें अपने व्यक्तित्व की ईमानदारी से कसावट करनी होगी । हमें गहराई से यह सोचना पड़ेगा कि वह विनाश के कगार पर है या विकास के सोपान पर । हमारा व्यक्तित्व हमारे लिए भारभूत बना है या उसकी कोई अर्थवत्ता भी है ।
मुझे तो विश्व के व्यक्तित्व का ग्लोब काफी घिसा-पिटा लगता है । उसके रंग उड़ते हुए लगते हैं । ग्लोब तो है, पर आत्म-निर्भर नहीं है, दीया तो है, पर ज्योतिर्मय नहीं है । यात्रा तो है, पर सही दिशा में नहीं है । आज व्यक्तित्व हो गया है विपथगामी । विश्व में आये हो, तो इसे और रंगो से भरो । फूलों से लबालब कर दो यहां का उपवन ।
हमें व्यक्तित्व-विकास के लिए ढूँढ़ना है ऐसा मार्ग, जिससे हम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं । जीवन इतना बोझिल बनता जा रहा है कि दबदबा
और त्राहि-त्राहि महसूस होती है । व्यक्तित्व की आभा धुंधली होती जा रही है । जैसे राम और महावीर ने अपने व्यक्तित्व को सजाया, सँवारा, निखारा, वैसे ही हमारे भी कदम बढ़ाएँ । उन्होंने अपने व्यक्तित्व की मशाल से जैसे जनमानस को उजला किया, वैसे ही हम भी करें । जहर का पान करते-करते तो कई जन्म बीत गये, अब पीना है अमृत को, अमरत्व को, ज्योतिर्मयता को । हम समझें फार्मूले को । यदि हम अपने व्यक्तित्व के तरुवर का सिंचन नहीं करेंगे, तो वह लूंठ बन जायेगा, अस्थि-कंकाल मात्र रह जायेगा । मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का विकास करना पड़ता है । उसका विकास अपने-आप नहीं होता, जैसा घास-फूस का होता है । प्रकृति और मनुष्य में यही बुनियादी भेद है । प्रकृति का विकास होता है और मनुष्य को अपना विकास करना पड़ता है । डार्विन के सिद्धान्त मनुष्य पर कभी लागू नहीं हो सकते । प्रकृति का जो विकास होता है, वह स्वभावतया हो जाता है । मनुष्य का जो विकास होता है, उसमें पुरुषार्थ के स्वर सुनाई देते हैं । इसलिए मनुष्य द्वारा जो होता है, वह विकास नहीं, वरन क्रान्ति है । हमें करनी है जीवन के रग-रग में क्रान्ति, महाक्रान्ति ।
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