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दस्तक शून्य के द्वार पर
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क्रिया गमन है, किन्तु प्रतिक्रिया लुढ़कना है । उसकी दशा उस पानी जैसी है, जिसके भाग्य में नीचे की ओर जाना ही लिखा है । मैं आरोहण के लिए कहूँगा, पर ऊर्ध्वारोहण करें । यात्रा हो ऊपर की ओर; गंगोत्री की ओर ।
उर्ध्वारोहण की प्रतीक है ज्योति । ज्योति का जन्म शून्य में है और अन्त विराट में । ज्योति हमेशा ऊचाँइयों को छूने का प्रयास करती है और पानी ऊपर चढ़ाये जाने के बावजूद सिर के बल ही गिरता है । ज्योति का व्यक्तित्व चढ़ना है और पानी का आचरण लुढ़कना है । चेतना तो ज्योति स्वरूप है । उसे वह पानी न समझें जो शिखर से पादमूल की ओर बहता है । बहना मुर्दापन है । उसने मुर्दापन के साथ गलबांही कर रखी है । जीवन की जिन्दादिली और जीवन्तता तो मात्र इसी में है कि हम बहना नहीं, अपितु तैरना सीखें । जो पानी में बहता है, वह लाचार है । अन्तेष्टि-संस्कार हो चुका है उसके बाहुबल का ।
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एक मित्र-साधक अपनी अलमस्ती में बैठा है शिखर पर, तरु के न । कहने में भले ही कह दें आसन पर, पर वो बैठा है अपने आप में । भीतर की बैठक में सर्वेक्षण कर रहा है स्वयं का । चालू हो चुकी है प्रज्ञा-की- धरा पर - परिक्रमा मन्दिर में लगाई जाने वाली फेरी-सी, प्रदिक्षिणा-सी । पर उसका पाँव 'चरैवेति-चरैवेति' का सूत्रधार नहीं है । स्वयं कुछ दृश्य उसकी बन्द आँखों में आ रहे हैं । मानों पाताल - लोक से कोई अजनबी जनम रहा है । वह ठहरा द्रष्टा, आते-जाते दृश्य तो उसके लिए ठीक वैसे ही हैं, जैसे बगल में हवा का झोंका ।
पहला दृश्य : एक गर्भवती महिला जा रही है अस्पताल की ओर । बीच रास्ते में उसे प्रसव पीड़ा घेर लेती है । नवजात बच्चा रोने लगता है । आखिर रोते हुए ही तो सभी आते हैं । परिवार वाले आते हैं और जच्चे-बच्चे को ले जाते हैं ।
दूसरा दृश्य : साधक देखता है एक ऐसे व्यक्ति को जो खाँसता- खाँसता चला जा रहा है । दो अंगुलियों के बीच सिगरेट थमी है । मुँह से दमघोंटू धुंआ निकल लहा है । छाती जल रही है । खाँसी रुक नहीं रही है । पर सिगरेट और उसके धुएँ का सम्मोहन कहाँ छूट पा रहा है ! वहीं
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