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दस्तक शून्य के द्वार पर
भाव-भरा उर, शब्द न आते, पहुँच न इन तक आँसू पाते, आओ, तृण से शुष्क धरा पर, अर्थ सहित रेखाएँ खींचें । आओ, बैठे तरु के नीचे ।
तरु के नीचे बैठने का मतलब है जीवन के इतिहास को शान्त चित्त से पढ़ना । पढ़ लिया हो तो सोचना और सोच लिया हो तो सम्बोधि को आत्मसात् करना । समाधि के शिखर पर आरोहण करने के लिए इस सारी प्रक्रिया को अनुभूतिजन्य अनिवार्यता माने ।
साधक की बैठक होती है शिखर पर शान्त चित्त ही उसकी समाधि का अपर नाम है । प्रज्ञा की आँख सोयी नहीं रहनी चाहिए । वह निष्पटल रहे, तो ही कैवल्य-दर्शन पास फटकता है । बाहर के लिए उत्सुकताएँ कम रहनी चाहिए । उसके आचरण में उदासी मुखर होनी चाहिए । उदासीनता वीतरागी चेहरे पर झलके, तो ही अन्तर् की माधुरी का आस्वाद लिया जा सकता है । स्वयं के ध्रुव रूप को उजागर करने के लिए यही स्वस्तिकर है।
उदासीनता का मतलब है- निर्लिप्तता । उदासीनता की बारीकियों को अपनाएँ तो साधना के द्वार पर सहज दस्तक होगी । उदासीनता ‘छोड़ने' से नहीं आती, 'छूटने' से आती है । 'छोड़ने' का सम्बन्ध बाहर से है और 'छूटने' का सम्बन्ध मन से है । छोड़ना छूटना नहीं है । पर हाँ, छूट जाये तो छोड़ने की माथाकूट नहीं करनी पड़ती । उदासीनता छूट जाने का ही नाम है । 'देहानुभूति-शून्य हूँ'- ऐसा कहने से देह-भाव नहीं छूटेगा । देह-भाव छूटने से देहानुभूति-शून्य स्वयं बन जाएंगे । ध्यान जितना प्रगाढ़ होगा, उदासीनता उतनी ही जीवन्त होगी ।
स्वयं का होश और बाहर से बेहोश- यही उदासीनता की मूल गहराई है। मुँह लटकाना उदासीनता नहीं है, वरन् शून्य के द्वार पर दस्तक है।
साधना का प्रथम चरण उदासीनता में प्रवेश है, तो अन्तिम चरण उदासीनता की उपलब्धि है । यह सच है कि वही साधक आसन पर शासन कर पाता है, जिसने असत्य के प्रति उदासीनता को आत्मसात् कर
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