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चलें, मन-के-पार लड़खड़ाता हुआ गिर पड़ता है । अस्पताल में, कानों में डॉक्टर के शब्द आते हैं- 'सिगरेट एक-दूजे के लिए नहीं, कैंसर के लिए ।'
तीसरा दृश्य : एक बूढ़ा चल रहा है । हाथ में लाठी, झुकी गर्दन, टेढ़ी कमर, हांफती सांस । बूढ़े ने आगे बढ़ने के लिए इस दफा जैसे ही लाठी आगे रखी, लाठी के नीचे केले का छिलका आ गया, लाठी फिसली
और बूढ़ा गिर पड़ा । जैसे-तैसे सम्भल, खड़ा हुआ, फिर चलने लगा पर इस बार किसी से टक्कर लग गयी । आदमी ने कहा, बूड्ढे ! अन्धे हो क्या ? देखकर नहीं चलते ? बूढ़े ने कहा, बूढ़ा हूँ। मेरी आँखें कमजोर हैं । पर तुम तो जवान हो । सही आँखें होते हुए भी टकराने वाला सूरदास है।
चौथा दृश्य : वह अनन्त का यात्री निरपेक्ष था । यात्रा मौन थी. लोगों की दर्द भरी आवाज के बीच । पांथ अकेला था साथियों के कन्धे पर । नयन मुंदे थे भीड़ की खुली आँखों में । स्वयं एड़ी-से-चोटी तक सजा था, संगी-साथी उघाड़े थे । जीवन-संगिनी विदाई दे चुकी थी घर की देहरी से । टिकट मिल चुका था । शमशान में डेरा लग गया । सब जला रहे थे, वह जल रहा था । साथ में वे कोई न जले, जिनके लिए उसने अपना जीवन जलाया । श्मशान के करीब से गुजरते संत ने कहा, दुनिया सरायखाना है। इसमें ठहरे राहगीर के लिए आँसं ? उसके लिए नहीं, अपने लिए रोओ । यह तुम्हें तुम्हारी मृत्यु की सूचना है । ज्योति बुझे, उससे पहले अपनी सम्पदा के 'ढूंढ़िया' बनो । यही 'तेरा पंथ' है ।
दृश्यों का तांता खत्म हो गया । ये चार दृश्य चार-दिन की जिन्दगी की फोटोग्राफी है । तरुवर के नीचे बैठे साधक ने सारे दृश्यों को साक्षी बनकर देखा । आँखें खोलीं । उनमें एक मन्द मुस्कान थीं । उस रहस्यमयी मुस्कान में अनुगूंज थी -
ये ऐश के बन्दे सोते रहे, फिर जागे भी तो क्या जागे ? सूरज का उभरना याद रहा और दिन का ढलना भूल गये ? धन, धरती, रूप, मजा में फँसा/कराहता मनुष्य सदा ऊँघ में रहा
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