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चलें, मन-के-पार अविराम मारे जा रहे हो, तो गाड़ी भला रुकेगी कैसे ? घड़ी में जब तक चाबी भरते रहोगे, वह टिक-टिक करती रहेगी । यदि टिक-टिक तुम्हारा जीना, सोना हराम कर रही है, तो चाबी भरनी बन्द करो | उसे ढीली छोड़ो । द्रष्टा-भाव का सूर्योदय होने दो अस्तित्व के आंगन में ।
यह घटना जीवन के द्वार पर आत्म-जागरण की पहल है । होने वाला होता रहेगा, तुम अलिप्त रहोगे । द्रष्टा को कैसा लेप ! जहाँ मन शान्त होगा, वहीं हृदय में प्रवेश होगा, हृदयेश के साथ 'हथलेवा' होगा ।
। आमतौर पर हर आदमी की यह शिकायत रहती है 'मन बड़ा दौड़ता है' । मन तो दौड़ेगा ही, जब तक दौड़ का साथ निभाओगे । दो पाँवों में से किसी एक पाँव को तो रोको, दूसरा स्वयमेव रुक जाएगा । गाड़ी का कोई-सा एक चक्का खोल दो, गाड़ी खुद-ब-खुद रुक जाएगी, दूसरे चक्के को बिना खोले ही ।
सुमिरन सुरत लगाइकै, मुख ते कछु न बोल । बाहर के पट देइकै, अन्तर के पट खोल ।।
लोग बैठते हैं पूजा के वक्त लाउड-स्पीकर लगाकर । शायद यही सोचकर कि भगवान् तक उनकी प्रार्थना की आवाज पहुँचे । भगवान् यदि आकाश में, स्वर्ग में या स्वर्ग से ऊपर रहते हैं, तब भी आवाज नहीं जा सकती, चाहे लाउड-स्पीकर लगा लो और यदि परमात्मा कण-कण में, स्वयं के पास है, तो वह गूंगे की भी प्रार्थना सुन लेगा ।।
हरिद्वार में एक आश्रम में मैं ठहरा था । सवेरे पाँच बजे वहाँ के पुजारी ने मन्दिर में बैठकर लाउड-स्पीकर में भगवान की प्रार्थना के स्तोत्र बोलने शुरू किये । वैसे भी सन्त की आवाज जोर की थी और उसमें भी लाउड-स्पीकर तेज । मैंने कहा, मन्दिर में और कोई नहीं, आप मन में ही स्तोत्र-स्मरण कर लें; कहने लगे, स्तोत्र तो जोर से ही बोलने चाहिए, ताकि .....। मैंने कहा, ताकि भगवान् सुन सकें । कहने लगे नहीं, लोग सुन सकें ।
पुजारी भगवान् के लिए नहीं, लोगों के लिए स्तोत्र-पाठ कर रहा
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