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चलें, मन-के-पार से बड़े परेशान हैं । मैं कहता हूँ परमात्मा की बात बाद में करना, पहले स्वयं को शान्त करो । ध्यान की सारी विधियाँ परमात्मा को पाने के लिए नहीं हैं, वरन् मन को शान्त करने के लिए हैं । शान्त मन ही परमात्मा का प्रवेश-द्वार है । पर हम हैं ऐसे, कुछ शान्ति मिली कि लौट चले । फिर अशान्त हुए, फिर मेरे पास आए ।
अशान्ति तब तक रहेगी, जब तक हम कुछ देखना चाहते हैं, सोचते हैं । नींद लेते समय जैसे हम शरीर को शान्त करते हैं, वैसे ही मन को भी सुला दें। मन का सोना ही हमारे लिए शान्ति का आधारभूत अनुष्ठान है ।
निश्चय ही, आज नहीं, तो कल, हर व्यक्ति अस्तित्व-बोध के लिए समर्पित होगा । अभी कहाँ जी रहे हो, जरा मन से पूछो । मन मस्ती का प्यासा है । उसकी सारी सक्रियता किसी-न-किसी मस्ती के आलम को टोहती है । स्वर्ग की तलाश में हाथ क्या आते हैं ? कांटे । उस स्वर्ग को कांटा न कहूँ, तो और क्या कहूँ जिसे पाने के बाद भी कुछ और, कहीं और पाना चाहते हो । स्वर्ग की सैर करके भी गर सन्तुष्ट न हो पाये तो वह स्वर्ग भी नरक की ही पीठ है ।
मन की एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए बेहतरीन प्रेरक प्रवचन देता है, किन्तु प्राप्त होने पर वह जल्दी उससे ऊब जाता है । इसलिए मन की मस्ती मनुष्य के लिए घुटन है, गलाघोंट संघर्ष है । पता नहीं, मन कहाँ-कहाँ की फेरी लगाता फिरता है । मनुष्य की निगाहें तो दो हैं, पर मन के पास हजार आँखों का विश्व कीर्तिमान है । सहस्राक्षी है मन । वह पर्यटन प्रेमी है । भटकता रहता है वह । दिन में ही नहीं, रात में भी । दिन में वैचारिक विकल्पों के रूप में और रात को स्वप्न के रूप में । ‘स्वप्नो विकल्पाः ' (शिव-दर्शन) विकल्प ही स्वप्न है । स्वप्न और विकल्प में कोई बुनियादी भेद नहीं है। दिन में उठने वाले विकल्प दबे हुए स्वप्न हैं और रात को आने वाले स्वप्न विकल्पों का हवाई परिदर्शन है, अ-दूरदर्शन है । स्वन-मुक्त होना, निर्विकल्प हो जाना, मन की यात्रा का विराम पाना ही आत्म-बोध का सिंह-द्वार है।
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