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योग का विपरीत नहीं हो सकता ।
द्रष्टा हर क्रियाकलाप के बीच तटस्थ रहता है । तरु तटस्थ है । तटस्थता न्याय है । न्यायाधीश तटस्थता का ही पर्याय है । वह सत्य को देखता है । दोनों पक्षों के प्रति वह एकसम रहता है । वह सबकी सुनता है, देखता है, पर समर्थन मात्र सत्य का करता है । सत्य के लिए जान जोखिम में डालने वाले आखिरी दम तक जीवन -कलश में सत्य - सुधा भरते रहते हैं ।
चलें, मन-के-पार
सब कुछ होता रहे, किन्त उस होने में से मात्र सत्य की अनुमोदना हो तो वही सत्यार्थ प्रकाश है ।
मैं यह न कहूँगा देखना छोड़ो, सुनना छोड़ो, सूंघना छोड़ो । क्योंकि ये क्रियाएँ तो उस समय भी चालू रहती हैं जब समाधि 'चरण - चेरी' बन जाती है । इसलिए मैं कहूँगा पकड़ना छोड़ो । आँख बन्द भी कर लोगे, कान में रूई डाल दोगे, तो भी मन देखेगा, सुनेगा, कहेगा । उसकी पहुँच बन्द आँखों में भी है और खुली आँखों में भी । हमारा दायित्व मात्र इतना ही है कि देखना, 'देखना ' ही रहे । देखे हुए को अगर चित्त पर आमन्त्रित / छायांकित कर दिया, तो वह देखना हमारी शान्त होती वृत्तियों का अतिक्रमण होगा । कमल कीचड़ में रहे, रहना भी पड़ेगा; पर कीचड़ कमल पर न चढ़े इसके लिए आठों याम चौकसी रखनी बुद्धिमानी है ।
मुक्त बनें, मन से मुक्त बनें । वह आकाश बनें, जिससे सब कुछ अस्पृश्य रहता है । आँधी चले या मेघ गरजे, दिन उगे या रात पले, पर आकाश को उन सब का कहाँ स्पर्श ! जिसमें कोई स्पर्श नहीं होता, वह मन-से-मुक्त है । रास-लीलाएँ चलती रहें, तो रहें, पर व्यक्ति के चित्त पर वे न झलकें । द्रष्टाभाव में रहने के बाद होने वाली रास लीला भी स्वयमेव उदासीनता को बुलाएगी । ऐसे ही तो होती है यात्रा । परम-जागरण परम सहकारी है शिखर की
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हमें अपनी खुमारी को समझना चाहिए । हम अपनी तन्द्रा को पहचानें और जागें । सन्दिरों में बजाये जाने वाले बड़े-बड़े घण्टों का यही रहस्य है । घण्टा बजाना आम है। क्या घण्टा बजाकर तुम अपने आने
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शून्य से शिखर की यात्रा के लिए ।
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