________________
चलें, मन-के-पार साथ जीना है । जीवन का कोई भी क्षण अर्थहीन न बने । जीवन को परम श्रेय के साथ मंजिल तक ले जाना ही आध्यात्मिक जीवन को आचरण में प्रकट करना है । यही जीवन का विधायक इन्कलाब है।
स्वयं की बुद्धि को जगाएँ । खुद की बुद्धि सुस्त रखेंगे तो मेरा कोई प्रयोजन नहीं होगा । शास्त्र हमारे लिए जीवन के अनुशास्ता नहीं बन पायेंगे | आँखें ही नहीं, तो आईना किस काम का ? मेरे दिल में उसके प्रति स्वागत-भाव रहता है, जिसके हृदय में जागरण-का-स्वागत है । भगवान् हमारे द्वार पर है, स्वागत गीत गाएँ, आरती उतारें ।
___ मानस में जागरण इतना प्राणवन्त हो जाये कि भेद-विज्ञान उससे जुदा न रह पाये, परा स्वयं आये अनक्षर बन, मन-की-शून्यता में, समाधि हमसफर बन जाये, साँसों की हर ऊर्ध्वता और नम्रता में । फिर खुद-ब-खुद हो जाएगा मन के अनन्त संसार का अन्त; हमारी ही बौनी अंगुलियाँ खीचेंगी उस अनन्त की सीमा रेखा ।
000
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org