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चलें, मन-के-पार लिया हो । आसन का मतलब है, बिछावट और उदासीनता का अर्थ है, ऐसी बिछावट जो संसार से ऊपर हो, अडोल हो, कमल हो । जिसका आसन संसार से उपरत है, वही साधना की सीढ़ी पर चढ़ रहा है । उदासीन होना यानी ऊँचा आसन करना - उत् + आसन । उदास होना यानी आशा - अभिलाषा से ऊपर उठना । आखिर उदासीनता ही तो मायाजाल से मुक्ति का अभियान है ।
जीवन में संन्यास अंगीकार करने का मतलब है स्वयं के आसन को मायाजाल से मुक्त करना, संसार के दावानल से ऊपर करना । संन्यास है ममत्व-की- मृत्यु । माता, पिता, भाई, पत्नी, बच्चे- ये सब ममत्व के ही पारिवारिक सदस्य हैं । संन्यास परिवार से दूरी है । इसलिए एक व्यक्ति का संन्यास उससे सम्बन्धित परिवार के बीच रेशम-डोर से बँधे रिश्तों पर कैंची चलाना है । उसे जीना होता है शिखर पर । शिखर से अभिप्राय है संसार से ऊपर । फिर चाहे हल्दी घाटी में तलवारें चलें या कुरूक्षेत्र में चक्रव्यूह रचे, पर साधक इन सबसे बेखबर होगा । वह अप्रभावित रहेगा । सारे दृश्य होंगे, मगर वह दृश्य का ग्राहक नहीं होगा । दर्शक देखता है, अभिनय नहीं करता । विश्व को चलचित्र की भाँति मूकदर्शक बने देखना ही अन्तर्जागरण की पहल है ।
मन भी अपनी चंचलता दर्शाता है, पर द्रष्टाभाव को मक्कम कर लो तो मन हमारा नौकर होगा । मन में पचासों विचार चलते हैं । वह घोड़े की तरह खुंदी करेगा ही । मन के मुताबिक करेंगे तो यह कहा जाएगा कि हम किसी और के कहे में आ गए । मन के अनुसार कृति की, तो हम पर केस चलेगा । द्रष्टा और दृश्य में भेद रखा, मन से विलग रहे, तो कहाँ रहेगा सजा से सम्बन्ध ! मन का मानना तो आसमान में थेंगले लगाना है ।
उदासीनता हो, तो दर्शन, गमन, स्पर्शन होते हुए भी कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी । वह क्रिया कभी बन्धनकर नहीं होती, जिसके प्रति अन्तर् में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है । प्रतिक्रिया से मुक्त होने का नाम ही ध्यान-सिद्धि है । धन-धरती वगैरह के प्रति आसक्तिमूलक या घृणामूलक प्रतिक्रियात्मक रवैया अपनाने वाले ही फँसते / कूल्हते हैं ।
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