________________
२७
द्रष्टया-भाव : ध्यान की आत्मा वाणी सघन ऊर्जा से प्रतिष्ठित होती है ।
मितभाषी के हर वक्तव्य की प्रतीक्षा रहती है, उसका सम्मान होता है । दो पेज के पत्र की बजाय दो पंक्ति का तार अधिक प्रभावी होता है । तार में हर शब्द पर पचास पैसे लगते हैं, इसलिए आदमी शब्दों की बचत करता है । जितना अधिक बोलोगे, भीतर की ऊर्जा उतनी ही बाहर बिखरेगी । बोलो, मगर शब्द-संयम का अतिक्रमण करके नहीं ।
दूसरा तल है मध्यमा- सोचने का । बोलना और सोचना दोनों में याराना है । आदमी बोलता इसलिए है, क्योंकि वह सोचता है । सोच ही अगले कदम में बोल बन पाता है । सोच भी एक सत्य है, एक आलोक है । सोच यदि ध्यान में केन्द्रीभूत हो जाये, तो सत्य की एक नयी मुस्कान आविष्कार पाती है। किन्तु तुम्हारा सोच तुम्हारे लिए आविष्कार के स्थान पर तुम्हें घुटन क्यों लगता है ? तुमने सोच को विकेन्द्रित कर रखा है । हजार तरह के सोच तुम्हारे मन में बनते-बिसरते हैं । जहाँ पल-पल में सोच धूप-छाँह खेलते हैं, वहाँ तुम न तो पूरी तरह अन्धकार में हो, और न पूरी तरह प्रकाश में । अधर में लटका कहलायेगा जीवन-काअध्यात्म । अध्यात्म सोच का परिष्कार है, केन्द्रीयकरण है । अपने मन के मेले से स्वयं को अलग ले चलो, ताकि बच्चे की तरह तुम भीड़ में भटक न सको ।
ध्यान का कार्यक्षेत्र है मन को शान्त करना । मन को शान्त करने का मतलब है दुनिया भर के भीड़भरे विचारों से स्वयं को मुक्त करना । जीवन के विज्ञान में मौन का प्रयोग इसलिये सार्थक हुआ । मौन रखो होठों का, मन का । ध्यान का यह महबूब चरण है। मैं इसे ऊर्जा-समीकरणध्यान कहूँगा । यदि इसे तुम प्रतिदिन करो, तो मानसिक तनाव तुम्हारी धमनियों में कभी भी संजीवित न हो पाएगा ।
शाम के वक्त चले आओ घर की छत पर, बागान में, कमरे में या ऐसे स्थान पर जहाँ सिर्फ तुम ही रहो, घर परिवार या भीड़ का कोलाहल न हो । आराम कुर्सी पर जाकर बैठो, बड़े आराम से, शिथिल-गात | आधे घंटे तक शान्त मन बैठे रहो । न कुछ देखना है, न कुछ सोचना है । बस ऐसे रहो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org