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द्रष्य-भाव : ध्यान की आत्मा पाँव के नीचे आई चींटी मर सकती है, मगर हवाई चप्पल से सम्भावना कम है।
पद-यात्रा त्याग एवं तितिक्षा की प्रतीक है | भारतीय सन्त पैदल ही हजारों मील की यात्रा कर लेते हैं । पद-यात्रा का मुख्य उद्देश्य अहिंसा है । विज्ञान के यात्रा-साधनों में अल्पतम हिंसा से हजारों मील के पत्थर पार किये जा सकते हैं । ऐसे यात्रा-साधनों का उपयोग न हो, जिसे जानवर खींचते हों, जिन रिक्षों को आदमी खींचते हों । डोली पर, ठेला गाड़ी पर बैठकर यात्रा करने की बजाय उस सरकारी रेल पर यात्रा करना बेहतर है, जो सार्वजनिक है । चाहे तुम बैठो या उससे दूर रहो, वह तो चलेगी ही । यह तो सरकारी व्यवस्था है।
लकड़ियाँ जलाकर पानी गर्म करने की बजाय बिजली के हीटर से गर्म करना और पचास आदमियों की बजाय क्रेन से गाड़ी खींचना जैसे बेहतर है, वैसे ही कई तथ्य ऐसे ही बेहतर हो सकते हैं । विज्ञान के उन आविष्कारों को स्वीकार करने के लिए हमें शान्त दिमाग से सोचना चाहिये, जिनके कारण हिंसा कम हो सकती है, अहिंसा की अस्मिता बढ़ सकती है । अहिंसा बहुत बड़ा धर्म है, हमें इसके प्रायोगिक रूपों को और विकसित करना चाहिये । परम्परा में भी सच्चाई हो सकती है, पर समय यदि सच्चाई के और बेहतर हस्ताक्षर करे, तो हमें उसका स्वागत करना चाहिये, बौद्धिक और वैज्ञानिक लोगों का तो यही निवेदन है।
विज्ञान भी दर्शन की ही एक कड़ी है । बाहर के विज्ञान की तरह भीतर भी विज्ञान है । जीवन-का-विज्ञान बैखरी और मध्यमा के उपरान्त पश्यन्ति की हंस-दृष्टि दर्शाता है। नीर-क्षीर का विवेक पश्यन्ति से ही निष्पन्न होता है । द्रष्टा द्वारा जो आत्मसात् होता है, वह है ज्ञान और देखने-की-क्रिया का नाम है पश्यन्ति । जहां यह कहा जाता है 'मैं कहता आंखन की देखी, तू कहता कागद की लेखी', वहाँ आँखों से देखने का मतलब इसी ‘पश्यन्ति' से है, दर्शन से है । दर्शन के मायने हैं द्रश्य ने दृष्य से स्वयं को अलग देख लिया है, परिधियों से विरत होकर केन्द्र के लिए सफल सफर शुरू कर दी है । आखिर द्रष्टा ही तो अपने स्वरूप में स्थित होता है- तदा द्रष्टु: स्वरूपे-अवस्थानम् ।
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