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चलें, मन-के-पार देखो । शास्त्र का ज्ञान पराया है, अगर उसे आत्मसात् न किया । हमारा परम सत्य वही है, जो हमने देखा है, सम्यग् दर्शन किया है । परिदृष्ट सत्य का सन्दर्भो से मिलान करो, असंगत लगे तो उसे हटाने में संकोच भी मत करो और संगत लगे तो उस पर गर्व करते कतराना क्या ?
निर्णय करना हमारा अधिकार है । निर्णय वैसा हो, जिस पर कुर्बान कर सको स्वयं को । आत्म-निर्णय लक्ष्य-सिद्धि की पहली सफलता है ।
कुछ बातें ऐसी हैं जिनका सम्बन्ध सीधे तौर पर न तो दर्शन से है, न श्रवण से । वे सिर्फ परम्परा बन कर चली हैं । मूल लक्ष्य तो खाई में गिर पड़े हैं, लीक पर चलने की विवशता अभी भी बची हुई है | आज सवेरे की परिचर्चा को ही ले लो । कुछ बातें ऐसी लगीं, जिन पर आम आदमी को भी, संघ-समाज को भी सोचना चाहिये । जैसे नंगे पाँव और नंगे बदन ही रहना-चलना चाहिये, या विकल्प स्वीकार किया जा सकता है ? पैदल ही चलना चाहिये, या यात्रा-साधनों का उपयोग कर सकते हैं ?
___मैंने अनेक साधु-संन्यासियों को नंगे बदन शहर में चलते पाया । आम लोगों को अच्छा न लगे, तो धर्म प्रभावना कहाँ हुई ! नग्नता उनके लिए है जिनका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं है, जंगल में जाकर अपना ज्ञान-ध्यान करते हैं । एकान्तवास तो दराज में चला गया और वे समाज के बीच जीते हैं । वे ऐसे समाज में नग्न रहना चाहते हैं, जहाँ की अपनी सभ्यता है । समाज में आओ; पर कृपया अपनी नग्नता की बजाय अपनी साधुता को प्रगट करो ।
वाराणसी में मैं गंगावासी 'देवरिया बाबा' से मिला । वे चौबीस घंटे में पांच-दस मिनट के लिए अपनी कुटिया से बाहर निकलते, ताकि भक्तों को दर्शन मिल सके । वे अपनी कुटिया में नग्न रहते थे, पर जब वे आम जनता के सामने आते तो सामाजिक दृष्टि से कंबल का एक अंगोछा पहन लेते । ऐसा करने में न तो संत की वीतरागता कुंठित होती है, न साधुता ।
नंगे पाँव चलो, कोई हर्ज नहीं है । स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद है । जहां तक हिंसा-अहिंसा का प्रश्न है, रबर की हवाई चप्पल या कपड़े के जूते पहिन सकते हो । इससे अहिंसा को कोई खतरा नहीं है | शायद इससे अहिंसा को और बल मिले । हवाई चप्पल पाँव की अपेक्षा अधिक नरम होती है ।
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