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चलें, मन के पार द्रष्टा-पुरुष कैवल्य-स्थिति का सच्चा पान्थ है. | उसे कैवल्य-बोध की शिखर ऊँचाइयां आत्मसात् होती हैं । द्रष्टा ही खोलते हैं द्वार स्थितप्रज्ञा के । इसलिए द्रष्टा होना स्थितप्रज्ञ होने की पहल है।
दर्शन के पार एक और मानक स्थिति है, जिसे 'परा' कहा जाता है । यह जीवन-विज्ञान का चौथा प्रयोग है, तल है । परा परम स्थिति है, महाशून्य की स्थिति है । सुनने और देखने के पार की मंजिल है । 'परा' के पार घटित होता है आत्मबोध । इसे पांचवीं स्थिति भले ही कह दें, पर यह स्थिति-मुक्त घटना है । परमात्मा का द्वार यहीं खुलता है ।
परमात्मा हमारी वैयक्तिक चेतना का परम विकास है। हमें चलना चाहिए विकास के इस शिखर पर, महोत्सव के लिए | चाहें तो इस प्रक्रिया से गुजर सकते हैं । मित्र ! सबसे पहले देह-ऊर्जा के पार चलें । ध्यान में बैठ जायें और स्वयं को प्राण-ऊर्जा पर केन्द्रित करें, श्वास लें, श्वास छोड़ें। श्वांस ही प्राण-ऊर्जा है । श्वास पर स्वयं को इतना केन्द्रित कर लें कि मानों हम सिर्फ श्वास हैं । जब प्राण-ऊर्जा का भरपूर उपयोग/ केन्द्रीकरण/लयबद्धता हो जाए, तो शरीर को शिथिल छोड़ दें और परम शान्त, परम मौन में डूबे रहें । शून्य-स्वरूप सहजतया अनुभूत होगा । यदि विचार/विकल्प आते-जाते लगें तो सजग होकर, होशपूर्वक उन्हें देखें । उनका साथ न निभायें | 'द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम्'- द्रष्टा स्वरूप में स्थित हो जाता है । यह द्रष्टा-भाव ही चित्त-वृत्तियों को शान्त करते हुए महाशून्य में प्रवेश कराएगा। अगले चरणों में होने वाला अनुभव ही आत्मबोध की दास्तान है।
इस सम्पूर्ण परा-परिवेश के लिए सर्वप्रथम पहल हो दर्शन के लिए, द्रष्टा-स्वरूप के लिए | ध्यान यहां तक पहुँचने में आपका सुख-दुःख में साथ निभाने वाला शुभाकांक्षी मित्र होगा । सबके भीतर विराजमान परमात्म-ज्योति को मेरे प्रणाम हैं । स्वीकार कीजिये ।
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