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द्रष्टा-भाव : ध्यान की आत्मा
____साधना की शुरुआत दर्शन से है । दर्शन ही सार है और दर्शन ही शुरुआत है आध्यात्मिक जीवन की । कुन्दकुन्द की नजरों में भ्रष्ट-पुरुष वही है, जो दर्शन-से-भ्रष्ट है । 'दसण भट्ठो भट्ठो' ही आस्तिकता और नास्तिकता की खरी कसौटी है । जब तक सत्य-असत्य का भेद न जाना, तब तक नास्तिक और भेद जाना, तब आस्तिक । अगर प्रबुद्ध होना चाहते हो, तो द्रष्टाभाव को आत्मसात् होने दो ।
घर-घर दीपक बरै, लखें नहीं अन्ध । लखत-लखत लखि परै, कटै जमफन्द ॥
अस्तित्व का आनन्द भोगो । अस्तित्व के आनन्द को भोगना ही समाधि-सुख है । दीये घर-घर में जल रहे हैं, भीतर देखो । जो भीतर नहीं देखता, वह अन्धा है । आम लोगों की नजरों में अन्धा वह है, जिसके
आँख नहीं हैं । अमृत-पुरुषों की राय में तो भीतर न देखना अन्धापन है । अन्तर-दर्शन का अभाव आध्यात्मिक अन्धापन है । 'लखत लखत लखि परै'- देखते-देखते आखिर देख लोगे । शून्य भी देख लोगे, अमृत भी देख लोगे ।
सुबह एक साधक कह रहे थे- आपके पास आने के बाद ऐसे लग रहा है मानो मैं विकल्प-शून्य हुआ जा रहा हूँ- विकल्पदशा से मुक्त । अब मैं क्या करूँ ? मैंने कहा करने को अब क्या है, अब तो सिर्फ होने को है । करना-धरना हो गया, अब तो होना है, खोना है, डूबना है; जो हो उसको देखना है । आनन्द का 'यह' पड़ाव आया है, तो 'वह' भी आएगा | मुबारक हो, तुम कुछ हो सके । मन की भगदड़ तुमने समझी, हृदय की धड़कन सुनी; अब सुनने हैं आत्मा के स्पन्दन, अहसास करनी है स्वयं की जीवन्तता । ध्यान सिर्फ यही रखना है कि बीच में सुस्ताना मत, प्रमत्त मत होना, अभी और तल पार करने हैं ।
जीवन के कई तल हैं और जीवन के प्रति सजग होने वालों को उन्हें ध्यान में लेना चाहिये । जीवन-का-विज्ञान भी प्रयोगों में विश्वास रखता है । अन्तर्-ज्ञान के प्रत्यक्ष हुए बिना वह सारे भरोसों को बैसाखियों का सहारा मानता है । ध्यान के विज्ञान में उन तलों को प्रकाशित किया गया
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