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चलें, मन-के-पार
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परमात्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें, क्योंकि जो मिल रहा है, वह भाग्य से एक रत्ती भी कम नहीं मिल रहा है । सम्भव है, इससे और बदतर स्थिति आ सकती थी ।
भविष्य की झलकियों को भी अपनी आँखों की टिमटिमाहट से दूर रखें । जो अभी है ही नहीं उसके बारे में 'है' को दाँव पर क्यों लगाना ? भविष्य जिस रूप में भी वर्तमान बनेगा, प्रसन्नतापूर्वक उसकी अगवानी करेंगे। हम निहारें बीज को; उसे सींचें; फल वही निष्पन्न होगा, जो उस बीज
सम्भावित है। बीज कैसा था, इसका परिचय हम फल से ही पा सकते हैं । इसलिए आकाश में थेंगले लगाना छोड़ो, छलांगें खूब मार ली, अब जिएँ वास्तविकता में ।
मैंने कहा वर्तमान के लिए, किन्तु यह सिर्फ इसलिए ताकि व्यक्ति उन उलझनों से मुक्त हो सके, जिनका सम्बन्ध अतीत और भविष्य से है । वर्तमान- उपयोग का मतलब यह नहीं कि अतीत और भविष्य ढकोसले हैं इसलिए खूब खाओ, पियो, मौज उड़ाओ । कृपया इस मामले में संयम रखें, अन्यथा मेमना जितना जल्दी मोटा-ताजा होगा, खतरा उतना ही अधिक सिर पर मंडराएगा ।
साधक के लिए वह मन ही ध्यान, योग और समाधि का द्वार बनता है, जो सिर्फ वर्तमान का अनुपश्यी है । जिस मन की इतनी आलोचना की गयी है, यदि वह वर्तमान- द्रष्टा और वर्तमान सक्रिय ही हो जाय, तो परमात्मा की किसी भी सम्भावना को आत्मसात् करने के लिए उससे बेहतर और कोई साधन न बनेगा । महावीर द्वारा वर्तमान की अनुप्रेक्षा और बुद्ध द्वारा उसकी विपश्यना उनकी मनोमुक्ति के प्रमुख प्रतिमान बने ।
मन या समय का अतिक्रमण करने के लिए जो हो रहा है, उसको होने देना है । यह भवितव्य है, किन्तु जहाँ भवितव्य को कर्तृत्व मान लिया जाता है, वहाँ वर्तमान भी बन्धन का आधार बन जाता है । परमात्मा को किसी कृत्य या क्रिया से नहीं, वरन् स्वभाव और होने से पाया जाता है । वह है, सिर्फ उसमें होना है । आत्म-स्वीकृति में ही परमात्मा की पदचाप सुनाई दे जाती है । जो है, यदि उसे समग्रता से ढूँढा जाए तो वह नजर सामने है -
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