________________
चित्त-वृत्तियों के आर-पार
संसार के दो रूप हैं- एक चित्त का संसार, दूसरा आँखों का संसार । चित्त का संसार आँखों के संसार से ज्यादा सूक्ष्म, किन्तु विस्तृत है । संसार के सारे क्लेशयुक्त परिणाम चित्त से ही जुड़े हैं । इसलिए नजर-महैय्या होने वाला संसार वास्तव में चित्त के अदृश्य संसार का प्रतिबिम्ब है ।
चित्त के संसार की पैठ इतनी गहरी है कि आँखों का उससे कोई वास्ता नहीं रह पाता । आँख तो चित्त की जी-हजूरी है । आँख बन्द कर लेने से बाहर का संसार इसके लिए अदृश्य-सा हो जाएगा, किन्तु चित्त की घाटी पर भीतर का संसार तो तब भी रहेगा । हाँ यदि चित्त का तख्ता पलट जाये, तो आँखों के खुले रहने या बन्द रहने का कोई अर्थ
और तर्क नहीं रह जाता | भला कमल की पंखुरियों के खुल जाने के बाद कीचड़ से उसका क्या तुक ?
चित्त का संसार जन्म-जन्म के घटनाक्रमों का कारवां है । आँखों में प्रतिबिम्बित होने वाले संसार को मैं प्रवृत्ति कहूँगा और चित्त के संसार को वृत्ति । आध्यात्मिक परिणामों के लिए प्रवृत्ति की बजाय वृत्ति अधिक प्रभावी है । अच्छी वृत्ति पुण्य कहलाती है और बुरी वृत्ति पाप । प्रवृत्ति कृत्य है । प्रवृत्ति बुरी होते हुए भी वृत्ति अच्छी हो सकती है और प्रवृत्ति अच्छी होते हुए भी वृत्ति बुरी हो सकती है | शत्रु द्वारा पिलाये गये जहर से यदि किसी की जान में जान आ जाये, और चिकित्सक द्वारा शल्य-चिकित्सा के वक्त किसी की जान निकल जाये, तो दोनों की मनोदशा का ही मूल्यांकन करना होगा । शत्रु मारना चाहता है, पर वह कहेगा, अरे ! यह तो बच गया । चिकित्सक बचाना चाहता है, पर वह कहेगा, ओह, बिचारा मर गया ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org