________________
४७
चित्त-वृत्तियों के आर-पार 'श्रावक' बढ़ा । श्रावक तो जीवन-बोध के बाद की घटना है । लोग जलसा तो करते हैं श्रमणत्व का, और अभी तक 'श्रावक' का पता ही नहीं ! श्रमण बनने से पहले सच्चे श्रावक बनो । मात्र जनेऊ पहनने से ब्राह्मणत्व आत्मसात् नहीं हो जाता । पहले स्रोतापन्न बनो, फिर बुद्धत्व की पहल प्रारम्भ होगी ।
__कहीं ऐसा न हो कि संन्यास लेने के बाद संसार के सपने देखो । यदि ऐसा हुआ तो वह संन्यास नहीं, संसार ही है । संन्यास में संसार की
आँख-मिचौली आत्म-प्रवंचना है । यदि संसारी संन्यास के ख्वाब सजाये, तो उसे बधाई है, क्योंकि व्यक्ति ऊँचे स्तर को निहार रहा है । पर उसे क्या कहोगे, जो शिखर-यात्रा का आधा रास्ता तय करने के बाद भी आगे बढ़ने के बजाय पीछे लौटना चाहता है तराई में !
जीवन का विज्ञान गहरा है । व्यक्ति बाहर से संन्यासी होकर भी भीतर से संसारी हो सकता है और बाहर से संसारी दिखता हुआ भी अन्तरंग से संन्यास को पल्लवित कर सकता है ।
जब जवां थे तो न की कदर जवानी की । अब हुए पीर तो याद अपना शबाब आता है ।
कहीं ऐसा न हो कि सब छोड़-छाड़ कर भी उसी को याद करते रहो, जो छोड़ा है । किसी प्रवृत्ति को छोड़ना कठिन है, पर उतना दुष्कर नहीं है, जितना छोड़े हुए की पकड़ को छोड़ना । लोग विवाह-मण्डप में भी धूमधाम से प्रवेश करते हैं, तो वैराग्य-मण्डप में भी बैण्डबाजे के साथ | विरक्ति के बाद वर्षीदान कैसा ! 'पशुओं की चित्कार सुनी, सष्टि ने आह्वान किया, जीवन में क्रान्ति घट गई और अरिष्टनेमि का रथ गिरनार (संन्यास) की राहों पर चल पड़ा।
दीक्षा जीवन-क्रान्ति की दास्तान है, शोभा-यात्रा निकालने का महोत्सव नहीं । लोग संन्यस्त होकर भी पूर्व जीवन का दम्भ भरते हैं । जो व्यक्ति साधुता के परिवेश में जीते हुए यह कहता है कि मैंने घर-बार छोड़ा, लाखों करोड़ों की जायदाद छोड़ी; मैंने यह छोड़ा, वह छोड़ा, वह त्याग का भी उपभोग कर रहा है । क्या तुम इसे छोड़ना कहोगे ? छोड़ा कहाँ ! अभी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org