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चलें, मन-के-पार तक तो पकड़े बैठे हो । त्याग की याद को पकड़े बैठे हो । मूल्य वस्तु के संग्रह और त्याग का नहीं है, उसकी पकड़ का है । एक सम्राट भी अपरिग्रही हो सकता है और एक भिखारी भी परिग्रही । 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' । परिग्रह का सम्बन्ध मूर्छा से है । जिसके पास जितना कम होगा, वह उतना ही बड़ा परिग्रही । मूर्छा की दृष्टि से भिखारी से बड़ा परिग्रही कौन ?
- पकड़ से मुक्त होने का ही नाम वीतरागता की पहल है | त्याग अच्छा है, किन्तु त्याग की स्मृति को संजोना त्याग की अच्छाई से सौ गुना बुरा है । त्याग प्रवृत्ति है, उपभोग भी प्रवृत्ति है, किन्तु उसकी पकड़ वृत्ति है । भोग न तो अच्छे होते हैं, न बुरे । जैसी दृष्टि/वृत्ति होती है, उसके लिए वे वैसे ही होते हैं । इसलिये पत्तों की बजाय जड़ की ओर चलो, वृत्तिशून्य बनो । जो छूट जाये, वह छूट ही जाएगा । छोड़ने के प्रयास में त्याग की स्मृति बची रहेगी, मगर जो चीज जी से हट चुकी है, उस छूटने में चित्त-के-पर्दे पर कोई प्रभाव न पड़ेगा, उसका जिक्र भी न आयेगा जुबां पर ।
नदी के किनारे कई घंटों से बैठी एक महिला ने नदी पार करते किसी संत से कहा, मुझे भी जरा पार लगा दें । सन्त ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि हम साधु-सन्त स्त्री को नहीं छूते । थोड़ी देर में उसी सन्त के शिष्य से जब बुढ़िया ने निवेदन किया, तो उसने महिला का हाथ पकड़कर नदी पार लगा दिया । गुरु ने शिष्य को देख लिया ।
दोनों वहाँ से काफी आगे बढ़ गए । गुरु ने शिष्य से कहा, तुमने महिला को पार लगाया । स्त्री-स्पर्श के लिए तुम्हें प्रायश्चित करना पड़ेगा । शिष्य ने कहा, मैंने पार अवश्य लगाया, किन्तु मैं तो उसे वहीं छोड़ आया । और आप मन में उसे यहां तक लाए हैं ।
वह सन्त तो सिर्फ हाथ पकड़कर ही लाया, अच्छा होता वह उसे अपने कन्धे पर बैठाकर लाता । कम-से-कम एक के ही कपड़े भीगते । गुरु कहते हैं स्त्री-स्पर्श के लिए प्रायश्चित ! आश्चर्य ! जिस साधक की नजरें देह से ही ऊपर उठ गई है, उसके लिए क्या स्त्री और क्या
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