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चित-वृत्तियों के आर-पार
११ इसलिए समाधि महाशून्य है, चित्त के संसार का समापन है । जहाँ चित्त का संसार भीतर की निगाहों से ओझल हो जाता है, वहीं चेतना जीवन-गगन में अपने पर खोलती है । चित्त के संसार के पार है चेतना-का-विस्तार, चैतन्य-विहार । चित्त के पार होना चित्त की शुद्धावस्था की पहल है । यही तो वह स्थिति है जहाँ आत्मज्ञान घटित होता है, आत्मज्ञान द्वार है परमात्मा का । आत्मज्ञान के शिखर-पड़ाव पर परमात्मा प्रगट होता है; वह परमात्मा, जो प्रत्येक का स्वभाव-सिद्ध अधिकार है । तब वह 'वह' नहीं रह जाता, जो अभी तक रहा है । जो अभी है, वह तो खो जाता है । फिर तो 'वह' अवतरित होता है, जिसकी उसे तलाश रही । एक नयी आभा प्रगट होती है, अमृत-वर्षा होती है जीवन के डाल-डाल और पात-पात पर ।
गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गंभीर । चहूँ दिसि दमकै दामिनी, भीजै दास कबीर ।।
फिर तो केवल ज्ञान यानी केवल का ज्ञान/ब्रह्मज्ञान मुँह से ही नहीं, आँखों से भी बोलने लगता है । सारा आकाश अमृत बरसाने लगता है । फिर तुम एक न रहोगे, अनन्त बन जाओगे । वाणी भी अनन्त बन जाएगी, हाथ भी अनन्त हो जाएंगे । करुणा और ध्यान भी अनन्त हो जाएगा । प्रकाश बहेगा रग-रग से रोशनदान की तरह ।
महाशून्य में ही महाअमृत की वर्षा होती है । आओ, चलें चित्तवृत्तियों-के-पार ।
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