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चलें, मन-के-पार वृत्ति-मुक्ति ही जीवन-मोक्ष है । अर्हत्-मनीषा निवृत्ति का प्रतिपादन करती है । शैव इसे 'तुर्यावस्था' कहते हैं । बुद्ध का शब्द है 'परावृत्ति' । वृत्ति की उज्ज्वलता ही परावृत्ति है । ध्यान के विज्ञान में 'परा' परमस्थिति का वाचक है । निवृत्ति और परावृत्ति अपने आखरी चरण में महाशून्य का रूप धर लेती हैं । वास्तव में जहाँ महाशून्य प्रगट है, वहीं 'स्वयं-का-जगत्'
वृत्तियों की पारदर्शी झिल्लियों का मिट जाना ही समाधि है । संन्यास और समाधि में बुनियादी भेद है । चित्त का सो जाना संन्यास है, किन्तु चित्त का शून्य हो जाना समाधि है । ध्यान इस समाधि में प्रवेश करवाता है, इसलिए ध्यान समाधि का प्रवेश-द्वार है । परन्तु ध्यान की आखरी मंजिल समाधि ही नहीं है । समाधि तो ध्यान का पहला चमत्कार है, प्रथम आनन्द-उत्सव है । समाधि वास्तव में तूफान-घिरे सरोवर का निस्तरंग होना है । यह आत्म-जाग्रति, यह दशा समाधि की है, प्रज्ञा की है । यह एक प्रकार की महामृत्यु है । जीवन में नया पुनर्जन्म है ।
मृत्यु उसी की होती है, जो मरणधर्मा है । शरीर मरणधर्मा है, चित्त मरणधर्मा है । मरने वाले मर गये, यही उनकी समाधि है । समाधि यानि कि मरणधर्मा ने अपना धर्म पूरा किया । संन्यासी/श्रमण जीकर भी शरीर की दृष्टि से मृत होता है । इसलिए उनके अन्त्येष्टि-स्थल को 'समाधि' कहा जाता है । वे मुक्त तो जीते जी हो जाते हैं, पर शरीर का ऋण चुकाना बाकी होता है । शरीर छूटा और जैसे ज्योति आकाश की ओर उठकर खो जाती है, ऐसे ही अमृत-पुरुष विलीन हो जाते हैं ।
जब व्यक्ति शरीर और चित्त दोनों के पार चला जाता है, तो समाधि से उसकी बखूबी मुलाकात होती है । देहातीत और मन-रहित स्थिति ही समाधि है । जहाँ हमारे 'आगे' भी कुछ नहीं बचता, 'पीछे' भी कुछ नहीं रहता, तभी समाधि की सम्भावना जीवन के हिमाच्छादित गौरीशंकर से अवतरित होती है । जहाँ कुछ नहीं है, वहीं समाधि है । जहाँ कुछ है, वहाँ किसी-न-किसी रूप में चित्तवृत्ति ही है । निर्विकल्प/विचार-रहित दशा का नाम समाधि है ।
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