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चलें, मन के पार दुनिया में अन्तरिक्ष के भी बँटवारे हो चुके हैं । महाशून्य का भी अलग-अलग 'विभाग', बहुत खूब ! मधुर व्यंग्य ! 'नहीं है' पर भी 'हे' की सील !
___यह सारी जमीन हमारे अतीत की गवाह है । पता नहीं, हम अब तक कितनी बार यहाँ जन्म-जन्म कर मर-खप चुके हैं । मृत्यु हर बार जन्म का कारण बनी और इस सारी कार्यवाही का अगुवा हमारा मन ही रहा । जमीन की पर्ते जितनी गहरी, हमारा अतीत भी उतना ही उम्दा । आकाश जितना फैला है, हमारा भविष्य भी वैसा ही अज्ञेय है, क्षितिज-दर-क्षितिज के बाद अज्ञात-ही-अज्ञात । .
धरती हमारा वर्तमान है । अतीत नरक है, वर्तमान ब्रह्माण्ड है और भविष्य स्वर्ग । कुछ होने के लिए सिर्फ ब्रह्माण्ड है । पर मनुष्य है ऐसा, जो वर्तमान पर उतना विश्वस्त नहीं है, जितना अतीत और भविष्य पर, नरक और स्वर्ग पर । है तो ब्रह्माण्ड भी नरक और स्वर्ग जैसा, किन्तु बिचोलिया फर्क यह है कि ब्रह्माण्ड हमारी आँखों के सामने है और नरक-स्वर्ग पीठ पीछे । जो वर्तमान में जीता है, उसके चरण नरक और स्वर्ग दोनों के पार हैं । वह जैसा है, उसी में जीता है । जो है, उसी का स्वागत-साक्षात्कार करता है । वह सिर्फ अपने शरीर का ही वर्तमान में · उपयोग नहीं करता, अपितु मन को भी वर्तमान पर केन्द्रित कर लेता है । वर्तमान पर किया जाने वाला केन्द्रीकरण अतीत और भविष्य के पेचिदे भटकाव या सुनहरे स्वप्नीले वातायन में जीने से ज्यादा बेहतर है । नरक के भय से या स्वर्ग के लोभ से जीवन-कृत्य न हो, वह हो निर्भयता के लिए, लोभ-मुक्ति के लिए ।
सोच व्यर्थ है मृत अतीत का, व्यर्थ है आगे का चितन । जीवन तो बस वर्तमान है, श्रेष्ठ इसी का अभिनन्दन ||
जो लोग अतीत को ही सुमरते रहते हैं, वे अपने घावों को कुरेद रहे हैं । अच्छा अतीत भी आखिर स्मृति का गम ही हमें सौंपेगा । माथाखोरी से बचने के लिए ही तो अतीत को अनादि कहा जाता है । सर्वज्ञ और सर्ववेत्ता भी अतीत के आदिम छोर को नहीं छू पाते । और
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