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वर्तमान की विपश्यना
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जीवन की समग्रता उसके 'है' में होने में है, बाकि तो सब 'सूने घर के पाहुने' हैं । यह हमारा सौभाग्य है कि धरती पर हमारे पाँव हैं । धरती की विराटता हमारे सामने 'खुली हथेली' की तरह फैली हुई है । विराटता को देखने की 'दर्शन - क्षमता' जितनी प्रखर होगी, विराटता हमारे उतनी ही नजदीक होगी ।
धरती के नीचे पाताल है और ऊपर आसमान । न पाताल का कोई अन्त है, न आसमान का कोई छोर । जब परिवेश करवट बदलता है, तो आकाश में भी पाताल की संभावनाएं बोल उठती हैं, और पाताल में आकाश की भी । आकाश तो हर अस्तित्व का प्राक्कथन है । आकाश कोरा है । आकाश का चुनींदा मतलब है खालीपन, भरपूर छूट । जमीन पर्त-दर-पर्त जमी माटी है और आसमान शून्य - दर - शून्य का बसेरा है ।
पृथ्वी गोल गुम्बज है, पाताल तो मंगल, शनि, नेपच्यून ग्रहों में भी है । वहां भी आकाश की रिक्त सफेदी है । क्या यह हमारी कम तकदीर है कि हमें हरी-भरी जमीन भी मिली है और आकाश का धारागर श्वेत छत्र भी । आंगन भी, आंगन में आकाश भी । हमारे अस्तित्व का कारवां दोनों के मध्य है ।
हम धरती के निवासी हैं । पर जमीन के लिए कैसे झगड़े ? यदि कोई इस पर अधिकार जताएगा भी, तो भी कहाँ तक ! किस गहराई तक अधिकार जताएँगे ! भूलें हम अधिकार की भाषा, क्योंकि अधिकार की भाषा आसक्ति की भाषा है, हिंसा और अहंकार की भाषा है । सोने की चिड़िया जैसी किंवदन्ती थाती से जुड़े देश की माटी में अधिकार की गन्ध ? अधिकार नहीं, प्यार की भाषा में आएँ । हम स्वतन्त्रता के प्रेमी हैं, जमीनी संकुचित अधिकारों के नहीं ।
जमीन सदियों से रही है और अन्तरिक्ष भी वही, किन्तु मन की अधिकारिक भूमिका में जीने वाले पता नहीं, अब तक कितने लोग अपना दम तोड़ चुके हैं । संसार में एक इंच भी जमीन ऐसी नहीं है, जहाँ अब तक कम-से-कम दस लोग दफनाये न गये हों । इसलिए सारा संसार श्मशान और कब्रिस्तान का मण्डप है
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