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वर्तमान की विपश्यना
मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है । वह या तो अतीत की ओर अपने कदम बढ़ाता है या भविष्य की ओर अपनी पलकें टिमटिमाता है । वह वर्तमान से अपरिचित है । जीवन का सम्बन्ध अतीत से भी रहा है और भविष्य से भी हो सकता है । जहाँ तक जीवन की जीवन्तता का सवाल है, उसकी सम्पूर्णता वर्तमान में है ।
जीवन प्रवाह है समय के धरातल पर । यह अविराम - अनिरुद्ध प्रवाह है । मनुष्य की व्याकुलता का कारण प्रवाह की अनिरुद्धता ही है । काश, मिल जाये उसे स्थित द्वीप, जहाँ वह निराकुल आनन्द में मस्त रह सके । यह निराकुलता जीवन के प्रवाह में महाजीवन की भोरभरी दास्तान है ।
निर्वाण का अर्थ किसी टेकरी पर जाकर बसना नहीं है, जो संसार के ऊहापोह भरे सागर से ऊपर हो । निर्वाण मन की मृत्यु है, समय का अतिक्रमण है । समय और मन दोनों में भाई-भतीजावाद चला करता है । जिसका मन मिट गया, उस पर समय के कालचक्र का नुकीलापन काम नहीं देता ।
व्यक्ति मन से शून्य बने । वह उसे मांजने के चक्कर में न पड़े । परिमार्जन भी मन का ही सभ्य दांवपेंच है । महावीर और बुद्ध जैसे पुरुष मन-मंजन के लिए संसार - मुक्त नहीं हुए, वरन् संसार और संन्यास के जाल बुनने वाले मन से मुक्त होने के लिए वीतद्वेष - मार्ग पर आरूढ़ हुए । मन भला कोई दर्पण है, जो उसे राख या नीबू की खटाई से मला जाये ! वह पदार्थ है । वह शरीर की सूक्ष्म संहिता है । व्यक्ति अतीत हो शरीर से भी, मन से भी ।
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