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यह है विशुद्धि का राजमार्ग
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चित्त तो भीतर का चक्का है । आन्तरिक एकाग्रता साधना के लिए उसकी तेजतर्राहट रोकनी जरूरी है । उसकी छितराती वृत्तियों और चंचलता पर अंकुश लगाने का नाम ही एकाग्रता है । एकाग्रता में पड़ने वाली दरारों को मिटाने के लिए चित्त-शुद्धि की पहल अनिवार्य है ।
चित्त के रास्तों से संस्कारों के कई कारवाँ गुजरते हैं । संस्कार स्मृति-संकर न कर पाये, यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है । चित्त को साफ-सुथरा करने के लिए वैर की बजाय प्रेम को बढ़ावा दें । स्वयं के दोषों को याद कर आँसुओं का धौला ताज न बनाकर स्वयं में गुणों को सींचने का दिलोजान से प्रयास करें । कषाय, वासना, डर को भीतर न दबाकर उसका रेचन करें । किसी की निन्दा के भाव जगे, तो ओंकार का नाद करें । किसी पर पत्थर फेंकने की बजाय माला के मनके चलाएँ । उन निमित्तों से भी दूर रहें, जिनसे चित्त मलिन / विचलित हो । ऊर्जा को सही दिशा में योजित करें । चित्त को सही दिशा में लगाना ही जीवन का रचनात्मक एवं सृजनात्मक उपयोग है ।
चित्त की विशुद्ध स्थिति में ही आत्मा की परमात्म-शक्ति मुखर होती है । जरूरत है प्रसन्नतापूर्वक चित्त को माँजने की, जीवन में सौहार्द एवं सौजन्य को न्यौता देने की । बाहर घूमती चेतना का समीकरण करें । सर्वतोभावेन ध्यान में रसमय हो जाएँ, समाधि हमें प्यार से छाती से लगाएगी । पहले टपकेंगी समाधि की बूँदें, फिर आएगी बरसात, एक दिन ऐसा होगा जब डूबे मिलेंगे समाधि की बाढ़ में ।
किन्तु, ध्यान-समाधि के इस वृक्ष की हरी छाँह को पाने के लिए हमें सर्वप्रथम चित्त को उस दलदल से निकालना होगा, जिसका सम्बन्ध असमाधि एवं भटकाव से है । अन्तर्जगत् की विकृतियों को सभ्यता और संस्कृति का पाठ पढ़ाना ही चित्त-शुद्धि का उपक्रम है । हम सिखाएँ चित्त को संस्कृत होना । संस्कृत पढ़ना अलग चीज है, पर संस्कृत होना विकृतियों से विमुक्त होने का साधु - अभियान है । निर्विकार चित्त ही मानवता को द्वन्द्व के शिकंजों से मुक्त करने की पृष्ठभूमि है ।
चित्त दर्पण की भांति है । इस पर विकारों / विचारों की धूल जम
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