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यह है विशुद्धि का राजमार्ग
३३ चित्त विचारों, संस्कारों, धारणाओं की फसल का बीज है । वे चाहे अच्छे हों चाहे बुरे, महाशून्य की अनुभूति में रोड़े ही हैं | अच्छे-बुरे का द्वन्द्व ही तो तनाव की नींव है । विचारों में व्यक्ति अयोध्या जाए या अकूरी, बाहरी रास्तों को ही नापेगा । तटस्थता आत्मसात् हो जाय तो व्यक्ति न तो चित्त के मुताबिक रहेगा, न चित्त के खिलाफ । वह रहेगा जीवन की विपरीत अवस्थाओं से अप्रभावित/अछूता ।
चित्त की हू-ब-हू पहचान के बाद प्रवृत्ति रहती है । किन्तु वृत्ति नहीं । प्रवृत्ति अनिवार्यता है, वृत्ति फिसलना है । वृत्ति चित्त की फुदफुदाहट है । चित्त-शून्य पुरुष द्वारा होने वाली प्रवृत्ति मनुष्य को कभी भी आड़े हाथों नहीं बाँधती । वृत्ति विकृत हो सकती है । ध्यान विकारों से ही नहीं, विचारों से भी मुक्ति का अभियान है ।
विचार चित्त की वासना है । वासना प्रक्षेपण है । वस्तु का मूल्य मनुष्य की वासना में है । पत्थर सिर्फ काँच ही नहीं है, हीरा भी है; मन की वासना बुझ जाए, तो कैसे होगा हीरा महिमावान् और काँच का अपमान । विचारों में वासना का बसेरा हो जाने के कारण ही तो मनुष्य के प्राण किसी तोते में न रहकर तिजोरी में अटके पड़े हैं । वासना में ही तो चित्त को भिगोया है । निचोड़ें जरा कसकर चित्त को उसकी सुकावट के लिए।
शाश्वत के घर में प्रवेश पाने के लिए विचार-शून्यता अनिवार्य है । मैं हिन्दु, मैं मुसलमान; मैं पुरुष, मैं स्त्री; मैं सुखी, मैं दुःखी; मैं त्यागी, मैं भोगी- ये सब भीतर की विचार रेखाएं हैं । हर रेखा दरार की शुरुआत है और हर दरार उपद्रव की वाचक है । विचार-शून्यता/चित्त-विशुद्धता अन्तर में विराजमान हो जाए, तो उपद्रव को उल्टे पाँव खिसकना ही होगा ।
विचार/संस्कार उस समय ज्यादा उभरते हैं, जब कोई शान्त बैठने की चेष्टा करता है । ध्यान शान्त चित्त बैठने की ही पहल है । ध्यान की घड़ियों में आने वाले विचार सोये-सोये दिखने वाले स्वप्न-चित्रों से भिन्न नहीं हैं । स्वप्न-मुक्ति के लिए चित्त का परिचय-पत्र पढ़ना जरूरी है । जो चित्त को परखने की कोशिश करता है, उसके सपने लेने की आदत खूद-ब-खुद
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