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चलें, मन के-पार और वही उसे निर्विष करने का उत्तरदायी भी है । शुद्धि की पहल वही कर सकता है, जिसने अशुद्धि की भूमिका निभाई है । जिन सीढ़ियों से व्यक्ति नीचे फिसलता है, उन्हीं से सम्हलकर ऊपर चढ़ना होगा ।
चित्त अपने आप में एक शक्ति है, और यह शक्ति चेतना के ही बदौलत है । यदि हम चित्त को हमारे अन्तःकरण के अर्थ में स्वीकार कर लें तो विशुद्धि के दायरे सहज और ऋजु हो जाएँगे । इन्द्रियाँ अपना काम करती हैं, किन्तु इन्द्रियों के संस्थान का निर्देशक तो चित्त ही है । भीतर से जैसे निर्देश मिलते हैं, इन्द्रियाँ उनका अमल करती हैं । इन्द्रियों की रोशनी बाहर से जुड़ी है । आँख, कान, नाक के अपने-अपने क्षितिज हैं । शुद्धि से उनका सीधा सम्बन्ध नहीं है । वे तो चाय-की-प्याली को दुकान से दफ्तर तक पहुँचाने वाली निमित्त मात्र हैं । इसलिये चित्त अगर शुद्ध हो जाए तो इन्द्रियों की शुद्धता आपो-आप संभावित है । आखिर चपरासी को रिश्वत लेने का पाठ पदाधिकारियों से ही सीखने को मिलता है । अन्तशुद्धि बहिशुद्धि का अनिवार्य आधार है ।
__ मनुष्य इन्द्रियों के जरिये ही भीतर के भावों की तरंगों को बाहरी जगत् में मूर्तरूप देता है, किन्तु उसकी सम्पूर्ण गतिविधियों का आधार-सूत्र चित्त ही है । इसीलिये यह इन्द्रियों का निर्देशक है । अगर एक बात दिमाग में घर कर ले कि चित्त को इन्द्रियों का निर्देशक होते हुए भी आत्मा को सलामी देनी ही पड़ती है । यदि द्रष्टाभाव जीवन्त हो जाय, तो चित्त का संस्कारजन्य शोरगुल मन्दा पड़ जायेगा । तटस्थ-पुरुष के लिए चित्त चरणों-का-चाकर है ।
चित्त का बोध हमें इसकी क्रियाओं के द्वारा होता है । यदि वह सन्तप्त हो जाए तो शरीर की सारी गतिविधियाँ उससे प्रभावित होंगी ही । आँख सही भले ही हो, किन्तु दर्शन के बाद होने वाले निर्णय का निर्णायक तो भीतर विराजमान चित्त ही है । इन्द्रियों की गतिविधियों का तार चित्त से जोड़ दिये जाने के कारण ही सुख-दुःख के बांसों की झुरमुट के टी-बी-टी-टुट-टुट सुनाई देते हैं । मनुष्य द्वारा चित्त के आधीन हो जाना ही जीवन की सबसे बड़ी अशुद्धि है । वो व्यक्ति सम्राट है, जिसने चित्त की बागडोर बखूबी सम्हाल रखी है ।।
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