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आइये, करें जीवन-कल्प
आदमी हमेशा चित्त के कहे में रहा, इसीलिए तो उसे युग-युग बीत जाने के बाद भी कोई मंजिल नहीं मिली । यहाँ मंजिलें तो सत्य के मार्ग पर सैंकड़ों हैं; पर हर कदम पर मंजिल होते हुए भी एक भी मंजिल नहीं मिली है । जो भटकाव है, वह भटकाव-के-नाम-पर चित्त-का-खेल है । चित्त की उलटबाँसी को समझें
यही जिन्दगी मुसीबत, यही जिन्दगी मुसर्रत (आनन्द) । यही जिन्दगी हकीकत, यही जिन्दगी फसाना ।
मैंने सुना है; किसी ने, किसी से पूछा, भाई कहाँ जाते हो ? उसने कहा- जिधर यह गधा जाता है । आदमी गधे पर सवार था । पूछने वाले व्यक्ति के बात समझ में न आई । जहाँ गधा जाता है, वहाँ मैं जाता हूँ, तो क्या गधे से पूछा जाए कि वह किधर जा रहा है ? क्या वह जवाब देगा ?
उसने कहा- भाई ! तेरी बात समझ में न आयी। तो वो बोला- गधा मेरे काबू में नहीं है । मैं गधे के काबू में हूँ । मैं दायें चलाना चाहता हूँ तो वह बायें चलता है । मैं जब इसे बायें चलाने की कोशिश करता हूँ, तो यह दायें चलता है । मैं घर जाना चाहता हूँ तो वह बाजार की ओर चलता है ।
और बाजार की ओर घुमाता हूँ तो वह घर की ओर चलता है । मैंने सोचा यह तो फजीती हो गयी । लोग क्या समझेंगे कि गधा मेरे काबू में नहीं है । मैं गधे से भी गया-बीता हूँ; इसलिए मैंने लगाम ढीली छोड़ दी है । जिधर चाहे उधर यह चले । कम-से-कम फजीती तो न होगी । मेरी इज्जत तो नहीं लुटेगी ।
तो उसने पूछा- आखिर गधे ने तुम्हें कहाँ पहुँचाया ? बोला- सुबह गाँव से शहर की ओर चला । अभी तक कहीं नहीं पहुँचा । शहर के नरक के पास खड़ा हूँ | अकूड़ी तक पहुँचा हूँ ।
पूछने वाले ने आगे बढ़ते हुए कहा- भाई ! मैं तो आगे जा रहा हूँ, पर तू इतना जरूर सोच कि तुम दोनों में गधा कौन है ?
मनुष्य ऐसी ही जिन्दगी जी रहा है । फजीहत से घबराता है । जिधर
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