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चलें, मन-के-पार चित्त जाता है, व्यक्ति स्वयं को उधर का राही बना लेता है । दिशाहीन यात्रा भला कहाँ पहुँचाएगी ? ज्यादा-से-ज्यादा दुकान-से-घर और घर-से-दुकान । घर-से-घाट और घाट-से-घर । जिन्दगी की अनमोल घड़ियां इसी के बीच बीत जाती हैं ।
चित्त अचेतन है । व्यक्ति स्वयं सचेतन है, पर क्या खूब है कि ड्राइवर कार नहीं चलाता, अपितु जिधर कार जा रही है, उधर ड्राइवर है; क्योंकि ब्रेक फैल हैं । ऐसी दशा में क्या कहीं किसी गन्तव्य की संभावना है ? क्या कहीं कोई मंजिल है ?
ताब मंजिल रास्ते में, मंजिलें थीं सैंकड़ों । हर कदम पर एक मंजिल थी, मगर मंजिल न थी ।
सत्य के रास्ते पर यात्रा तो तब होती है, जब व्यक्ति चित्त से कुछ ऊपर उठे; वह अचित्त बने, अचल बने ।
पर हाँ, योग केवल अचित्त होने से- सधे, ऐसी बात नहीं है । स-चित्तता भी चेतना-के-द्वार पर दस्तक बन सकती है।
मोटे तौर पर चित्त की दो ही संभावनाएं हैं। या तो वह मार-से-कम्पित होता है, या राम-से-आन्दोलित । चित्त, मार और राम इन दो में से किसी एक को चुनता है । प्रशान्त चित्त होना समाधि में प्रवेश करने का द्वार है । मार से वासना को ईधन मिलता है। राम तो मुक्ति की झंकृति है । चित्त का राम होना उसका विराम नहीं है । यह उसका अन्तिम पड़ाव नहीं है । वह तो चित्त की प्रखर ऊर्जा को परमात्म-दर्शन की राह पर संयोजित करना मात्र है।
चित्त का विराम दमन है और दमन भूकम्प की पूर्व संभावित तैयारी है । अगर चित्त राम से आन्दोलित हो उठे तो साधना को साधने में और अपने अन्तर्यामी को पहचानने में चित्त से बड़ा मददगार अन्य कोई नहीं है। जीवन की टूटी-बौखलाई टाँगों को वही चित्त बैशाखी बनकर आगे बढ़ने में जबरदस्त मददगार हो जाता है । जो नौका अब तक हमें भटकाये हुए थी, वही किनारा पाने में सहायक हो जाती है ।
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