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घुटन का आत्म-समर्पण
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कविताओं की रहस्यवादिता जिस सत्ता/शक्ति से जुड़ी है, योगी को उसकी झलक अपने भीतर मिलती है, जबकि कल्पना की जमुहाई लेने वाले कवियों को उसका प्रतिबिम्ब प्रकृति के सहस्रमुखी/सहस्रबाहु रूप में मिलता है । उस शक्ति का नाम फिर आत्मा दें या परमात्मा, उससे तादात्म्य की अनुभूति ही ध्यान की स्नातक सफलता है।
यह सत्ता ही अस्तित्व की मौलिकता है। उसका परिचय-पत्र क्या? यदि ध्यान से उसकी उपलब्धि हो जाए, तो विजय का उन्माद कैसा ? यदि हत्तन्त्री में उसकी झंकृति न भी हो, तो हार का शिकवा कैसा ? हाथ में प्राप्त हो या अप्राप्त पैसा तो पर्स में ही है । आखिर है तो वही व्यष्टि बनाम समष्टि का व्यक्तित्व ।
एक व्यक्ति की घड़ी खो गयी थी, सो वह उसे ढूँढने लगा। पड़ोसी भी उसकी मदद करने लगे । सारी गली छान ली, पर घड़ी की छाँह भी हाथ न लगी । ढूँढते-ढूँढते पड़ोसी ने पूछा- 'घड़ी खोयी कहाँ थी ?' कहा- 'घर
में।
पड़ोसी सकते में आ गया । कहने लगा- 'यह कैसी मूर्खता, घर में खोयी घड़ी को ढूँढ रहे हो गली में' ? व्यक्ति ने कहा- 'बात तेरी पते की है, पर घर में अँधेरा जो ठहरा । गली में तो रोशनी बह रही है ।'
घर में खोयी वस्तु घर में ही ढूँढनी पड़ती है, फिर चाहे घर में अँधेरा हो, या उजाला । भीतर में पाले गये तनाव के अंधेरे से बिदक कर कहीं ओर
आँख फैलाना सत्य की खोज नहीं, मात्र क्षितिजों में आकाश की सीमा ढूँढना है, कोरा भटकाव है ।
आठों पहर चलने वाले इंसान को भी यह खबर नहीं है वह कहां जा रहा है ? उसका लक्ष्य क्या है, वह लक्ष्य-पूर्ति के लिए कितना समर्पित है ? सुबह से शाम की यात्रा में जिन्दगी यूँ ही तमाम होती है । मेहनत की कुल्हाड़ी से खाई खूब खोदता है, पर स्वयं की राख से ही उसे पाट डालता है । हाथ सिर्फ, माटी लगती है, रत्नों का संभार नहीं ।
मनुष्य स्वयं चेतना की विराटता का सूत्र है । उसे अपनी गतिमान
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