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चलें, मन-के-पार घुटाने के लिए नहीं ।
अमन-दशा में मन की मृत्यु नहीं होती, वरन् मन विलय पा लेता है आत्मा के धरातल पर । मन का देह से जोड़, सारे जहान से मन का चुम्बन जीवन में संसार निर्माण की आधारशिला है । यदि साक्षित्व-का-सर्वोदय हो जाय तो बिना किसी ननुनच के मन के तादात्म्य का निरोध हो सकता है ।
कहते हैं; जंगल से गुजरते समय गौतम की भेंट अंगुलिमाल से हुई । अंगुलिमाल था रक्त-पिपासु हत्यारा और गौतम थे चेतना-के-शिखर ।
अंगुलिमाल ने गौतम को ललकारा और जिस पगडण्डी पर वे चल रहे थे, वहीं ठहरने का निर्देश दिया । गौतम मुस्कुराये और चलते-चलते ही कहा, मैं तो ठहरा हुआ हूँ हे निर्देशक ! चलना तू बंद कर ।।
गौतम का वक्तव्य प्राणवन्त था, पर अंगुलिमाल के लिए वह उलटबाँसी था । चलते राही गौतम खुद को रुके हुए बता रहे थे और पहाड़ी की चोटी पर खड़े अंगुलिमाल को चलता हुआ । यह बात तो उसको बाद में समझ में आयी कि व्यक्ति का चलना तो वास्तव में उसी दिन समाप्त हो जाता है, जिस दिन मन की चाल की बैशाखी हाथ से छूट जाती है ।
गौतम ने कहा- 'अंगुलिमाल ! अपने मन में बहते गंदे नाले को देख! मुझ रुके हुए को रुकने को क्यों कह रहा है ? जिन कृत्यों से तू जुड़ा है, उन्हें जाग कर परख । कितने भयंकर हो सकते हैं उनके परिणाम ! जीवन मृत्यु की ओर बढ़ने के लिए नहीं; छीना-झपटी और भाग-दौड़ के लिए नहीं; तनावमुक्त आनन्दमय महाकरुणा के लिए है ।'
कहते हैं अंगुलिमाल का दिल बदल गया । वह फर्शाधारी से काषायधारी बन गया । यह एक अभिनव क्रान्ति थी ।
चूंकि अंगुलिमाल ने हजारों लोगों के घर उजाड़े थे, कितनों की हत्याएँ की, इसलिए ठौर-ठौर पर उसके दुश्मन थे । पर साधक को तो मृत्यु के प्रति भी मित्र-भाव रहता है । भिक्षाचर्या के लिए निकलने पर पहले ही दिन लोगों ने उसे पत्थरों से मार कर अधमरा कर दिया । जीवन की आखिरी घड़ी में उसने गौतम को अपने पास पाया । वह कृतज्ञ था । मार के बीच भी मुस्कान
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