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घुटन का आत्म-समर्पण
१६ पात्र हैं । पाँव प्रतीक है कर्मयोग का । पाँव रुका कि पटाक्षेप हुआ कर्मयोग के नाटक का । क्या नहीं सुना है बचपन से- 'बहता पानी निर्मला, रुके तो गंदा होय' । पानी है परिचायक/रूपक पाँव का ।
मन की व्यवस्था पाँव के कर्मयोग के ठीक विपरीत है । यदि मन का चलना ही कर्मयोग कहा जाय तो मन से बड़ा कर्मयोगी संसार में कोई भी नहीं है । यहाँ तक कि संसार की सारी योजनाओं का व्यवस्थापक भी मन की कर्मयोगिता के सामने कुबड़ा लगेगा ।
जीवन में अपेक्षा मनोकर्म की नहीं, मनोयोग की है । मनोयोग है मन की एकाग्रता । समुन्दर की लहरों की तरह छितरने वाला मन कर्मयोग नहीं, वरन् जीवन-रोग है । तनाव और घुटन का मवाद रिसता है मन के घाव से ही ।
इसलिये मन रोग है और रोग-मुक्ति जीवन-स्वास्थ्य की अनिवार्य शर्त
मन है सुविधावादी/अवसरवादी । अच्छे विचार और बुरे विचार की प्रतिस्पर्धा का विरोधी है वह । जो भी चीज उसे अपने अनुकूल लगेगी, वह उसके साथ रहने में ही अपना सत्संग मानेगा । ध्यान है विचारों का मौन । विचार चाहे अच्छे हो या बुरे, तनाव की जड़ हैं । जहां अच्छाइयाँ हैं, वहाँ बुराइयाँ भी हैं, जहाँ बुराइयाँ हैं, वहाँ अच्छाइयाँ भी हैं । ध्यान अच्छे-भाव/बुरे-भाव-से-मुक्त, मात्र स्वभाव है ।
__ जो व्यक्ति मन में है, वह अधार्मिक है । अधर्म है विभाव-में-रमण, धर्म है स्वभाव-में-चरण । मन की हर परिणति स्वभाव के लिए चुनौती है । मन के कर्मयोग के रहते व्यक्ति का अवसरवाद और पाखण्ड नामर्द नहीं हो सकता ।
अमन है जीवन में सदाबहार चमन करने का राज । सुख-दुःख तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, धूप-छांव का खेल है । जीवन में जरूरत है उस आनन्द की, जिसके प्रास्ताविक से उपसंहार तक कहीं भी तनाव न हो । जीवन आनन्द के लिए है । नृत्य के लिए है, पुण्य-कृत्य के लिए है, तनाव या दम
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