Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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गंग राजवंश
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अर्हन्त के निमित्त श्रुतकीत्ति सेनापति को भूमि का दान दिये जाने का उल्लेख है। इसी राजवंश के एक दो अन्य दानपत्र बड़े महत्वपूर्ण हैं। इनमें से एक में श्रीविजय शिवमगेश वर्मा द्वारा अपने राज्य के चतुर्थ वर्ष में एक ग्राम का दान उसे तीन भागों में बांटकर दिये जाने का उल्लेख है। एक भाग 'भगवत् अर्हद् महाजिनेन्द्र देवता' को दिया गया, दूसरा 'श्वेतपट महाश्रमण संघ' के उपभोग के लिए, और तीसरा 'निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ' के उपयोग के लिए । दूसरे लेख में शान्ति वर्मा के पुत्र श्री मृगेश द्वारा अपने राज्य के आठवें वर्ष में यापनीय, निर्ग्रन्थ और कूर्चक मुनियों के हेतु भूमि-दान दिये जाने का उल्लेख है। एक अन्य लेख में शान्तिवर्मा द्वारा यापनीय तपस्वियों के लिये एक ग्राम के दान का उल्लेख है । एक अन्य लेख में हरिवर्मा द्वारा सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैनमंदिर की अष्टान्हिका पूजा के लिये, तथा सर्वसंघ के भोजन के लिए एक गांव कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघ के हाथ में दिये जाने का उल्लेख है । इस वंश के और भी अनेक लेख हैं जिनमें जिनालयों के रक्षणार्थ व नाना जैन संघों के निमित्त ग्रामों और भूमियों के दान का उल्लेख है। उससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पांचवीं छठी शताब्दी में जैन संघ के निर्ग्रन्थ (दिगम्बर), श्वेतपट, यापनीय वा कूर्चक शाखाएं सुप्रतिष्ठित सुविख्यात, लोकप्रिय और राज्य सम्मान्य हो चुकी थीं। इनमें के प्रथम तीन मुनि-संप्रदायों का उल्लेख तो पट्टावलियों व जैन साहित्य में बहुत आया है, किन्तु कूर्चक संप्रदाय का कहीं अन्यत्र विशेष परिचय नहीं मिलता।
गंग राजवंश
श्रवणबेलगोला के अनेक शिलालेखों तथा अभयचन्द्रकृत गोम्मटसार वत्ति की उत्थानिका में उल्लेख मिलता है कि गंगराज की नींव डालने में जैनाचार्य सिंहनदि ने बड़ी सहायता की थी। इस वंश के अविनीत नाम के राजा के प्रतिपालक जैनाचार्य विजयकीर्ति कहे गये हैं। सुप्रसिद्ध तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्ता आचार्य पूज्यपाद देवनंदि इसी वंश के सातवें नरेश दुविनीत के राजगुरू थे, ऐसे उल्लेख मिलते हैं। इनके तथा शिवमार और श्रीपुरुष नामक नरेशों के अनेक लेखों में जैन मन्दिर निर्माण व जैन मुनियों को दान के उल्लेख भी मिलते हैं। गंगनरेश मारसिंह के विषय में कहा गया है कि उन्होंने अनेक मारी युद्धों में विजय प्राप्त करके नाना दुर्ग और किले जीतकर एवं अनेक जैन मंदिर और स्तम्भ निर्माण करा कर अन्त में अजितसेन भट्टारक के समीप बंकापुर में संल्लेखना विधि से मरण किया, जिसका काल शक सं० ८६६ (ई. सं. ९७४) निर्दिष्ट है। मारसिंह के उत्तराधिकारी राच
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